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पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/१७

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पर आईं या नहीं? जरा आप इस बात को सोचें तो सही कि 'आप' से 'तुम' शब्द कितना मीठा और प्यारा लगता है? 'तुम' के सुनने से जैसी कानों में अमृत की सी बूंदें टपकने लगती हैं, वैसी 'आप' से नहीं।"

किन्तु, इस बात का जवाब उस बालिका ने कुछ भी न दिया और लज्जा, संकोच, तथा स्नेह में डूबती, उतराती, जल्दी जल्दी पैर उठाती हुई वह घर की ओर चली। युवक उसके साथ ही साथ चला।

पाठकों ने कदाचित इतना तो अवश्य ही समझ लिया होगा कि बालिका का नाम 'कुसुमकुमारी' है। निदान, थोड़ी दूर जब कुसुम का घर रह गया तो उसने एक बार युवक की ओर देख और लज्जा से सिमट कर कहा,-

"अच्छा, जो आपको 'आप' से 'तुम' शब्द ज्यादे प्यारा लगता है तो मुझे 'तुम' कहने में अंटक क्या है? 'आप' न सही, 'तुम' ही सही। अच्छा तो तुम, देखो, मेरा साथ न छोड़ना। मुझे न जाने क्यों आज बड़ा डर लग रहा है; आओ चलें, जल्दी घर चलें।"

युवा ने कहा,-" मेरे रहते भी तुम्हें डर लगता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है; और क्यों, कुसुम! मैंने तुम्हें, इस बात को सैकड़ों बार समझाया था कि यह अत्याचारी नव्वाबकी राजधानी है, इस लिये तुम ऐसे भयंकर नगर में दिन दो पहर अकेली न घूमा करो, पर मना करने पर भी तुम नहीं मानतीं। भला, यह तो बतलाओ कि तुम इस समय कहां गई थीं?"

कुसुम ने आंसू गेर कर कहा,--

"सुनो जी, मां की जैसी अवस्था आज कल हो रही है, उसका हाल तो मैं अभी तुम्हें सुना ही चुकी हूं। सो माँ के लिये औषध और पथ्य को धान का लावा लेने में गई थी। सो लावा निगोडा तो वहीं भीड़ में गिर गया और दवाई की पुड़िया को मैं अपनी मुट्ठी में इतने ज़ोर से दबाए हुई थी कि उसे मैंने किसी तरह भी गिरने नहीं दिया। तीन चार दिन से चम्पा भी मांदी हो गई है, इसीलिये लाचार होकर मुझे आज घर से बाहर पैर निकालना पड़ा,नहीं तो मैं क्यों निकलती; किन्तु हाय! पथ्य के लिये जो