पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
परिच्छेद)
४३
आदर्शरमणी।



मन को छीन कर अब उसका बदला चुकाने के समय यों आना-कानी कर रहे हैं तो फिर मैं अब उनके गले का हार बन कर क्यों व्यर्थ यहां पड़ी रहूँ और क्यों न यहांसे झटपट अपना मुंह काला करूं!!!"

इतनेही में पीछे से आकर किसीने उसकी आंखे बंद करली और बहुतही धीरे से कहा,-

“बूझो तो कौन हैं?"

इतनी देर तक कुसुम दुचित्ती होकर आपही आप अपना मन-माना राग अलाप रही थी, पर ज्योंही उसकी आंखें किसीने मीच ली, त्योंही वह चिहुंक उठी और मुस्कुरा कर बोली,-

"सिवा उस महानुभाव महात्मा के और कौन होगा, जिस देवता ने मेरी बड़े गाढे़ समय में सब भांति से वैसी रक्षा की है, जैसी कोई अपने सगे संबंधी की भी न कर सकेगा।"

जिन्होंने कुसुम को आंखें मूंद ली थीं, वे महात्मा बीरेन्द्र थे, सो कसुम के उस ढंग के उत्तर को सुन कर वे उसके सामने आए और संगमर्मर को दूसरी चौकी पर बैठकर बोले-

"क्यों, कसुम। क्या मेरा मुंह ऐसेही जवाब के लायक था, जैसा कि तुमने दिया! यदि मैं यह जानता होता कि अब तुम्हारा चित्त मुझसे उचट कर कहीं और ही ठौर गया हुआ है तो मैं कभी तुम्हारी आंखें न मींचता।

बीरेन्द्र की बातों से कुसुम के मुखड़े पर गहरी लाली छा गई, उसने लजा से सिमट कर अपनी आंखें नीची करली और कुछ कहा सुना नहीं। बीरेन्द्र ने फिर कहा,-

"क्या, अब मेरी बातों के जवाब देने में भी तुम्हें रुकावट है?"

कुसुम ने सिर झुकाए हुए कहा,-"आप यह क्या कह रहे हैं?"

बीरेन्द्र ने कहा,-"जी, मैं यह कह रहा हूं कि आप यहां पर बैठी हुई अभी आप ही आप क्या क्या कह रही थी?"

कुसुम,-"हाय! मुझे आप'आप' क्यों कहते हैं?

बीरेन्द्र ने कहा,-" जी यह आपके 'आप' का जवाब है!"

कुसुम,-"भला, आपकी और मेरी क्या बराबरी है? कहां आप और कहां मैं!"

बीरेन्द्र,-"ठीक है,अब मैंने आपके चित्त के भाव को समझा