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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी।


देवीजी! जब आप महाराज नरेन्द्र सिंह की पटरानी बनियेगा तो मुझ सरीखे ग़रीबों पर भी सदा कृपादृष्टि बनाए रहिएगा; क्योंकि आपके कृपा-कटाक्ष से ही मुझ जैसे कपटी-कुटिल का भी बेड़ापार लग सकता है!"

इतना सुनते ही कुसुम के तलुवे से चोटी तक आग सी लग उठी और उसने झल्लाकर बीरेन्द्र की ओर बड़े झटके के साथ घूम, तेवर बदलकर दांत पर दांत मसमसाते हुए कहा,-" सुनोजी! जो तुम इस तरह की छेड़छाड़ मुझसे करोगे तो मैं अभी रथ पर से कूदं कर अपनी जान देदूंगी।"

इतना सुनते ही बीरेन्द्र ने उसे भरज़ोर अपने हृदय से लगा लिया और कहा,-"लो, कूदो तो सही!"

निदान, इसी भांति सुखपूर्वक मार्ग को तय करते हुए तीसरे दिन प्रातःताल के समय बीरेंद्र रंगपुर पहुंचे। शहर के बाहर पहिले से माधवसिंह और मदनमोहन आदि राज्य के प्रधान प्रधान माननीय व्यक्ति उपस्थित थे, जिन्होंने बड़े आदर से बीरेंद्र की अगवानी की और दो हज़ार सवारों की सजी हुई कतार ने सलामी उतारी। फिर बीरेंद्र कुसुम को उसी रथ पर छोड़ और उसके पास चम्पा को बैठाकर आप सजे हुए अम्बारीदार हाथी पर सवार हुए और बड़े धूम-धाम, डंके-निशान और गाजे-बाजे के साथ उनको सवारी राजमन्दिर की ओर चली।

क्यों, पाठक! इस समय बीरेंद्र के राजोचित सन्मान और राजसी ठाठ को देखकर सुकुमारी कुसुमकुमारी के चंचल चित्त में किन किन भावों की तरंगें लहराने लग गई होंगी!!! अस्तु, चलिए और यह देखिए, बीरेंद्र की सवारी राजमन्दिर के सद्र फाटक पर जाकर ठहर गई।

फाटक पर सवारी के पहुंचते ही किले की बुर्जी पर चढी हुई तोपें बीरेंद्र की अभ्यर्थना करने लगी, राजद्वार पर नौबत झरने लगी और प्रजाओं ने इतने फूल बरसाए कि थोड़ी देर के लिये बीरेंद्र का हाथी और कुसुम का रथ,-दोनों फूलों की ढेर में छिप से गए! फिर बीरेंद्र का हाथी और कुसुम का रथ सदर फाटक से होता हुआ राजसदन के अंतःपुर की पहिली ड्योढ़ी पर जाकर ठहर गया। उस समय उनके साथ केवल माधवसिंह और मदन-