कुसुम को ले जाकर बैठा दिया और अपनी अंगूठी उतार, उस की अंगुली में पहिनाकर मुस्कुराते हुए कहा,-"
"राजनन्दिनी! यह मेरी तुच्छ भेंट ग्रहण कीजिए। (लवंग की ओर दिखलाकर) यह राजा नरेन्द्रसिंह को छोटी बहिन हैं, इनका नाम कुमारी लवंगलता है। मैं अब आपसे बिदा होता हूं और फिर भी यही प्रार्थना करता जाता हूं कि आप मुझे कभी अपने जी से भुला न दीजिएगा। थोड़ी ही देर में आप महाराज नरेन्द्रसिंह को देखेंगी, जिनके साथ आपका बिवाह होनेवाला है और जिसके होने से मेरे आनन्द की सीमा न रहेगी।”
कुसुम से यों कह बीरेन्द्र ने एक भेद से भरी हुई आंख लवंग-लता पर डाली और बिचारी कुसुम को घबड़ाहट, उद्वेग, चिंता, संदेह, संशय आदि के जंजाल में तड़पती हुई छोड़कर वे उस कमरे से बाहर चले गए।
बीरेन्द्र के जाने पर पहिले लवंगलता बोली,-"आप घबरायं नहीं, मेरे भैया अभी आपसे मिलेंगे।"
किन्तु इस बात का जवाब कुसुम ने कुछ भी न दिया, कदाचित उसने लवंगलता की वह बात सुनी भी न हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि बीरेन्द्र की बातों ने उस समय उसके चित्तको इतना डामा-डोल करदिया था कि जिससे वह अपने आप में ही न थी। वह न रोती थी,न हंसती थी, न उसाँसें लेती थी, न लवंगलता की बातें सुनती थी, न कुछ आप ही कहती थी और न इसी बात का उसे कुछ ध्यान था कि,-'मैं कौन हूं, किसलिये यहां लाई गई हूं, मेरे पास कौन खड़ा है और मेरे साथ कैसा बर्ताव किया जा रहा है!'
निदान, कुसुम को उस अवस्था में आध घंटे से ज्यादे न रहना पड़ा, क्योंकि उसी कमरे में, जिस कमरे में कि वह बल-पूर्वक जड़ाऊ सिंहासन पर बैठाई गई थी और उसके पास लवंगलता खड़ी थी, चालीस आदमियों के साथ बीरेन्द्र आ पहुंचे। उन पर आंख पड़ते ही कुसुम चिहुंक उठी, किन्तु बिना कुछ कहे-सुने, चुपचाप, कठपुतली की नाईं नीची नार किए, वह जहांकी तहां बैठी रही। बीरेन्द्र के साथ जो चालीस आदमी उस कमरे में आए थे, उनमें महाराज नरेन्द्रसिंह के मित्र मदनमोहन, राजमंत्री माधवसिंह,