सोलहवां परिच्छेद
देवीपूजन।
"दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः।"
पहली मई को नरेन्द्रसिंह कुसुम से बिदा होकर पलासी की लड़ाई में साथ देने के लिए लाट क्लाइवसाहब के पास गए थे, जिसे आज पूरा एक महीना बीत गया है; अर्थात् आज पहिली जून है। इस एक महीने के भीतर सुशीला कुसुम की क्या अवस्था हुई, या उसने नरेन्द्र के वियोग में एक महीने के दिन क्यों कर काटे, इस परिच्छेद में हम वही वृत्तांत लिखा चाहते हैं।
पहिली मई को नरेन्द्र कुसुम से बिदा हुए, वह रात कुसुम ने बड़ी ही बेचैनी के साथ काटी यद्यपि वह साधारण स्त्रियों की भांति डाढ़े मार मार कर रोती न थी, पर जिस तरह भीतर ही भीतर उसका हिया रोरहा था, वह यन्त्रणा बड़ी ही भयानक थी और उसी पीड़ा से वह अत्यन्त बिकल थी; जिस बिकलता के चित्र खैंचने में हम किसी तरह भी समर्थ नहीं हैं। यद्यपि भाई के जाने से लवंग को कुछ थोड़ा दुःख न था, पर कुसुम की ऐसी अवस्था होरही थी कि जिसे देख लवंग अपना दुःख भूल सी गई और हर तरह से वह कुसुम के जी बँटाने या बहलाने का उद्योग करने लगी थी!
लवँग की उस समवेदना को देख, जैसी कि वह अपने भाई की जुदाई को भूल, भौजाई [कुसुम] के मन बहलाने में दिखलाने लग गई थी, कुसुम बहुत ही चकित हुई और तब उसने मन ही मन यह सोचकर कि,—'अरे! लवंग मुझे इतना प्यार करती है कि जो अपने भाई के वियोग को मेरी बिकलता देख कर भूल गई और मेरे जी बहलाने के लिए जी जान से भांति भाँति के उद्योग करने लगी है! तो अब अपने जी की पीर जी ही में क्यों न छिपाए और-गों न इस सुख दुख की साथिन सहेली [ननद] के जी