सभी की सम्मति से चिकित्सा का निश्चय किया गया।
बारात भी बिदा कर दी गई। भगवती अत्यंत कलपती हुई अपनी मूर्च्छिता माता से लिपट गई, पर उसे उसी अवस्था में छोड़कर जाना पड़ा।
आज का दिन भी बीत गया। रात के नौ बजे रागी ने आँख खोली। यह देखते ही शारदा ने उससे पूछा―"बहन, कैसा जी है?"
रोगी ने आँख फाड़कर उसकी ओर देखकर कहा―"तू कब आई?"
शारदा भौंचक-सी रह गई। ऐसी बात तो उसने कभी नहीं कही थी। उसने कहा―"मुझे पहचाना, मैं कौन हूँ?"
"निर्लज्जा! तू वही लड़की है। मेरे पेट से होकर मेरा ऐसा अपमान!" इतना कहकर शशि ने अपने ऊपर की चादर फेक दी। शारदा डर गई। उसने दासी से कहकर गृह स्वामी को बुला भेजा। शारदा ने फिर कुछ ढाढ़स करके तनिक उसके मुख के पास आकर कहा―"मुझे पहचानो तो, मैं कौन हूँ?" अब की बार शशि क्षण-भर उसकी ओर देखकर और काँपकर बोली―"हें-हें, मुझे क्यों खाती है― मारे मत।" यह कहकर शशिकला रो उठी।
दुःखित होकर शारदा पीछे हट गई। उसी समय गृह- वामी के साथ सुंदरलालजी ने प्रवेश किया। उन्हें देखते