पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/११

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मास प्राक्कथन चैत्र के अंतिम दिन व्यतीत हो रहे थे । वसंत का यौवन अंगों से फूट चला था । समय संध्या का था । चंद्रमा कभी बादलों के आवरणों में मुंह छिपाता और कभी स्वच्छ नीलिमामय अाकाश में खुले मुंह अठखेलियाँ करता फिर रहा था। मैं भोजन के उपरांत अपने अनन्य मित्र बाबू सूर्यप्रताप के साथ अपने मकान की छत पर घूम-घूमकर आनंद लुट रहा था। मन उस समय अत्यंत प्रफुल्ल था; कितु मेरे मित्र के मन में सुग्व नहीं था। क्योंकि जब मैंने हँसकर सुदर चंद्रमा की चपलता पर एक व्यंग्य छोड़ा, तो उन्होंने प्रशांत तारक-हीन नीलाकाश की ओर हाथ फैलाकर उदास मुख, गंभीर वाणी और कंपित स्वर से कहा-"इस अस्थिर और चंद्रमा को चपलता में अनुरंजित होकर कहीं इस अनंत गांभीर्य की अमूर्त मूर्ति को मत भूल जाना।" क्षण-भर में मित्र के रंग में मेरा मन रँग गया। एक बार ऊपर चंद्रमा को देखा, तो उसकी चंचलता वैसी ही थी । उस पर मेरे मित्र की बात का कुछ भी प्रभाव न पड़ा था । मैंने उसकी ओर से मुँह फेर लिया। मैं मित्र को लेकर एक चटाई पर जा बैठा । वहाँ बैठते ही उन्होंने अपना हृदय खोल दिया । शीघ्र ही मैं उस भाव में तल्लीन हो गया । रात्रि के साथ ही साथ मेरे मित्र के विचारों की धाराएँ गंभीर होती चली गई। अंततः वह अमृत-धारा- प्रवाह बंद हुआ और मैंने अपने हृदय को अत्यंत गंभीर और नितांत प्रशांत प्रदेश में स्थिर पाया । उस समय जब मैं अपने मित्र से सोने की अाशा लेकर चला, तो देखा कि समस्त नगर की