पानी बच रहा था, उसी को अश्रद्वा से उस असमर्थ रोगी के मुख में डाल दिया! उसका अधिकांश बाहर गिर गया। शशिकला पति की यह अवहेलना सह न सकी। उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी।
शारदा से यह न देखा गया। उसने दौड़कर रोगिणी का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया, और पानी फिर पिला दिया। शशि ने अयंत अनुनय की दृष्टि से शारदा को देखा। शारदा भी रो पड़ी। शशि ने क्षीण, किंतु सतेज स्वर में स्वामी से कहा―"नाथ, शराब और अफ़ीम-जैसी भयंकर प्राणनाशकारी विपैली वस्तु भी जब एक बार किसी के मुँह लग जाती है, शरीर का नाश करते रहने पर भी एकाएक नहीं छूटती। उसकी हुड़क मरते-मरते तक बनी रहती है। मैं तो उससे अधिक भयंकर और विषैली नहीं हूँ? तुमने जीवन-भर प्राणों से भी अधिक प्यार किया है। तुम्हारी दासी बनकर मैंने हृदय से तुम्हें चाहा है। अब मरती बार अपराध क्षमा न करके घृणा करोगे, तो तुम्हारा सारा पुण्य लुप्र हो जायगा। मेरी आत्मा भी नरक में जला करेगी।" इतना कहकर वह चुप हो गई। गृह-स्वामी चुपचाप नीचे देखते रहे।
अब रोगी की बेचैनी बढ़ने लगी। उसने कपड़े फेक दिए। गृह-स्वामी ने उन्हें भी न सँभाला। एक हिचकी आई, और उसने कहा―"स्वामीजी, मैं चली।"