पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/११५

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पंद्रहवाँ परिच्छेद

दस दिन बाद शारदा आज लौट आई है। उसका मुख डाल से टूटे हुए बासी गुलाब की तरह कुम्हला रहा है; न उसमें रस है, न मिठास। सुंदरलाल भी अत्यंत खिन्न और सुस्त है! शारदा आकर चुपचाप आँगन में बैठ गई है। सरला ने सुना कि शारदादेवी आई हैं। वह धीरे-धीरे उठकर वहाँ आईं, पर आज चुँबक की तरह दोनो एक दूसरे की गोद में न चली गईं। शंका, लज्जा और अनुताप से सरला मरी जाती थी, और दुःख, जलन, निराशा से शारदा आहत हो रही थी। सरला आकर नीचा सिर किए खड़ी हो गई। शारदा ने उसे एक बार देखकर धीरे से कहा―"बैठ जा सरला।" पर सरला खड़ी ही रही। शारदा ने भी उस ओर न देखा। सरला इस व्यवहार से बड़ी मर्माहत हुई। उसे घटना का तो कुछ ज्ञान था ही नहीं। वह बोल उठी―"मा! क्या सरला अब तुम्हारे आदर की पात्री नहीं है?" शारदा ने अत्यंत उदास होकर कातर स्वर से कहा―"क्यों?"

"वह जार-पुत्री है न?" यह कहकर सरला फुटकर रोने लगी।

शारदा ने झपटकर उसे गोद में उठा लिया, और