पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१३९

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सत्रहवाँ परिच्छेद

छूट गई। सरला चिल्लाकर बोल उठी―"आओ! चले आओ! तुम्हें क्यों रोकूँगी? हाय! मैंने क्या लिख दिया था।" यह कहते-कहते सरला वेचैन हो गई। फिर कुछ याद करके चौंक पड़ी। अरे, वह कब से बैठे हैं। यह क्या? ऐसी ग़फ़लत! सरला अपना चित्त और वस्त्र सँभालती हुई विद्याधर के कमरे में चली आई।

सरला को देखकर विद्याधर चुपचाप उठ खड़े हुए। सरला ने देखा, उनके मुख पर पहले-जैसी उत्सुकता और लालसा नहीं है। कुछ ठहरकर सरला ने कहा―"आपकी तबियत तो अच्छी है? मैंने समझा कि अब आप क्या आवेंगे!"

विद्याधर ने तनिक हसकर कहा―"ठीक ही हूँ, पर देखता हूँ, आपका चित्त भी बहुत उदास है।"

"तिस पर भी आपके दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं। मैं नहीं समझती कि मैंने आपका क्या अपराध किया है। फिर मेरा विश्वास है, आप मेरा अपराध भी क्षमा कर देंगे। क्योंकि आप तो जानते ही हैं कि मैं जन्म की दुखिया, अनाथा और असहाया हूँ।" यह कहते-कहते सरला की आँखें भर आईं, और दो आँसू उसके पीले गालों पर से ढरकार धरती पर आ गिरे।

विद्याधर भी तनिक दुःखी हुए, और उन्होंने लज्जित होकर कहा―"देवी, आपसे नाराज़ी कैसी? यों ही इच्छा होने पर भी आपसे जल्दी-जल्दी नहीं मिल सकता हूँ।"