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हृदय की परख

सरला ने कुछ आग्रह से कहा-"किंतु मेरा प्रश्न कुछ और ही है।"

उस रमणी ने बात काटकर कहा- बेटी, मैं बड़ी अभागिनी हूँ, महादुःखिनी हूँ। हाय ! मेरी बात क्या कहने योग्य है । मैं बड़ी पापिनी हूँ। वे बातें क्वाँरपने की हैं । जब तुम्हारे बाप का कुछ पता न चला, तो मेरे पिता ने मेरा अन्यत्र ब्याह कर दिया। मेरे पति एक नगर के प्रसिद्ध धनी है।"

उसका यह प्रलाप किसान के करौंत की तरह कर-कर करता हुआ सरला के सरल हृदय को इस पार से उस पार चीरता हुआ चला गया। उसने रमणी की ओर से मुॅंह फेर लिया। रमणी ने उसका यह भाव ताड़़कर कहा-"बात तो घृणा ही की है, पर अब घृणा करने से ही क्या होगा ? उसके लिये मैंने क्या क्या न किया । जो नहीं है, उसकी बात क्या ? बड़ी कठिनता से तुम्हारा पता पाकर आई हूँ।"

सरला ने कुछ विरक्त होकर कहा- क्यों आई हो ? इतनी कृपा की तो कुछ आवश्यकता नहीं थी।"

रमणी ने कुछ खिन्न होकर कहा-"सरला ! तुझे अपनी माँ का जन्म में एक बार आना भी खटक उठा ? तुझे-"

सरला ने बात काटकर कुछ उपेक्षा के स्वर में कहा-"नहीं, खटक क्यों उठता ? आई हो, तो स्वागत पर अब इस बात के कहने में ही क्या है कि तुम मेरी माँ हो।"

"क्यों ? यह बात सुनकर क्या तुझे कुछ भी सुख नहीं हुआ ?"