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हृदय की परख

भक्त बन गया हूँ। तभी एक धुँधली-सी आशा हुई थी कि आपकी सेवा करने का अवसर मिले, तो अहोभाग्य; पर जैसे मनुष्य के जी में और बहुत-से संकल्प उठा करते हैं, वैसे ही यह भी था। और, यह तो स्वप्न में भी विश्वास न था कि मुझे सचमुच ही आपकी सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त होगा।"

सरला के हाथ से पेंसिल छूट गई। कुछ देर में जो उसने सिर उठाकर देखा, तो युवक का सारा शरीर काँप रहा था। उसने बहुत कुछ सँभल कर कहा―"आप जो कृपा कर रहे हैं, मैं कैसे बतलाऊँ कि उसने मुझे कैसा आनंद मिलता है; पर अभी तक यह संदेह ही था कि आप जो इतनी कृपा कर रहे हैं, इसमें व्यर्थ ही आपको कष्ट होता है। पर संकोच-वश में कुछ कह न सकी थी।"

युवक के नेत्रों में मद छा गया। उसने अत्यंत नम्रता से कहा―"मैं नहीं जानता दयामयी देवी क्यों इस साधारण व्यक्ति पर ऐसी कृपा रखती हैं।" नम्रता के साथ ही युवक के मुख पर अनुराग और आतुरता झलक रही थी।

सरला का सारा शरीर सिकुड़ रहा था, पर इस बार उसने हृदय को कड़ा करके कहा―"मैं एक दुःखिनी, बेघर- बार की अबला हूँ। मैं किसी को कुछ नहीं देती, फिर भी लोग मुझ पर ऐसी कृपा करते हैं कि मैं तो लाज में गड़ जाती हूँ। आप भी वैसी ही बात कहते हैं।" यह कहकर