पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/८९

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बारहवाँ परिच्छेद

दासी को याद रक्खा है, इसकी बात जो सोचते रहे हो। इतनी तपस्या के पीछे यदि अभीष्ट सिद्ध हो, तो क्या वह सुलभ कहावेगा? फिर वस्तु सुलभ हो या दुर्लभ, अधिकारी ही प्राप्त कर पाता है।"

युवक बोला―"तो अधिकारी में कैसे हुआ? मैं तो कोई वैसा महान् पुरुष नहीं हूँ। और, न मैंने वैसे पुण्य ही किए हैं।"

"अनुराग और सेवा यह महापुण्य हैं। जो इसमें स्थिर रहता है, वही महान् है।"

"किंतु पात्र भी चाहिए?"

सरला स्थिर कंठ से बोली―"वही पात्र है।"

"वही पात्र है? चाहे वह कैसा ही क्षुद्र क्यों न हो?"

सरला ने उसी स्वर में कहा―"क्षुद्र क्या? चाहे वह कीड़ा, मकोड़ा, पशु और हिंसक ही क्यों न हो।"

इस समय सरला का मुख ऐसा तेजोमय हो रहा था कि युवक से उसकी ओर देखा ही न गया। उसने नीचे ही देखते-देखते कहा―"देवी! आपका यह स्वरूप न देखा जाता है, न समझा जाता है। आपका यह विशाल हृदय क्या जाने किस लोक की बात सोचता है। ऐसी अमूल्य वस्तु क्या इस लोक की हो सकती है?"

सरला ने निश्चल और गंभीर भाव से कहा―"वह सब कुछ मैं तुम्हारे ही चरणों में न्योछावर कर चुकी हूँ। वह तुम्हारी ही पूजा में मग्न है।"