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ही भर जाते हैं और दुर्गन्धियुक्त स्त्राव बन्द ही जाता है। परन्तु यदि हड्डी कट या सड़ गई हो तो बिना उसके निकाले चिकित्सा असम्भव है। उपदंश रोग के कारण यदि अपसीन का ज्वर आ जावे तो उपरोक्त चिकित्सा के पश्चात स्थानिक उपचार करना चाहिये। रस कपूर-१ भाग या (परक्लोराइड आफ मरकरी)५,००० या १०,००० भाग पानी में घोलकर उस मिअण से नाक धोना चाहिये। जिस स्थान पर घाव हो गया हो वहॉं पर नाइट्रेट आफ सिल्वर लगाना चाहिये।

   प्रत्येक रोगी की सम्पूर्ण प्रकृति को सुधारने के लिए उसको उत्तम पौष्टिक भोजन देना चाहिये। साथ ही साथ उसे स्वच्छ वायु के स्थान में व्यायाम करना चाहिये। हो सके तो प्रारम्भ से ही स्थानिक उपचार के साथ ही साथ कॉड लिवर ऑयल, लोह सोमल, कोयनेल इत्यादि शक्तिबर्धक औषधियों को उपयोग करना चाहिये। इस प्रकार के निरंतर कई मास के उपचार से भी अपीनस ऐसे दुखदाई ज्वर से छुटकारा मिल जाता है परन्तु यह बहुत कम रोगियों से साध्य है। अतएव लोगों में घातक विचार उत्पन्न हो गया है कि अपोनस किसी भी उपचार से ठीक नहीं होता।
                               [भिषग्विलास (पु०१४) पृ० ५८ ६३] 
   अपुष्प बनस्पति-वनस्पति शास्त्र के मुख्य दो भागों में से अपुष्प वनस्पति (Cryptogam)एक भाग है। इस भाग के वनस्पतियों में एक पेशोमय वनस्पति से लेकर,जिनमें वास्तव में फूल नहीं होते ऐसी सब प्रकार की वनस्पतियों का समावेश होता है। सपुष्प वनस्पति में और इसमें जो बड़ा भेद दिखाई पड़ता है वह यह है कि अपुष्प वनस्पति जनन-पेशी (Spores) से उत्पन्न होती हैं और सपुष्प वनस्पति में भी जनन पेशी तयार होती हैं परन्तु पहिले की तरह पेड़ उत्पन्न करने की शक्ति उनमें नहीं रहती। यह जनन-पेशी यदि सड़ाई जाय तो भी उनमें से नवीन पेड़ उत्पन्न नहीं हो सकते; वह बीज से ही होते हैं। बीज अनेक पेशियों से मिलकर बनते हैं तथा उनमें अनेक पेशियों का एक गर्भ पहिल से ही तैयार हुवा रहता है। जनन पेशी एक पेशीमय रहती है तथा अपुष्प वनस्पति में अलग हो जाती है। इसके पश्चात उससे बिलकुल नवीन वनस्पति निर्माण होती है। अतः अपुष्प वनस्पति को जननपेशी की वनस्पति तथा सपुष्प वनस्पति को बीज की वनस्पति नाम दिये गये हैं।
   वर्गीकरण-अपुष्प वनस्पति का वर्गीकरण भिन्न भिन्न प्रकार से किया गया है। आगे दिया हुआ वर्गीकरण व्राउन पद्धतिका है। उसमें से एग्लर, एड्गलर, वेटस्टाइन इत्य्यादि का रह्दोबदल स्वीकार किया है। इस पद्धतिके अनुसार अपुष्प वनस्पति बनस्पति शास्त्र की नीचे की सीढ़ी और सपुष्प वनस्पति ऊपर की सीढ़ी है। अपुष्प वनस्पति के नीचे दिये अनुसार विभाग किये जाते हैं।
   (१)स्थाणुवर्ग-(Thallophyta)इस भाग में बहुत प्रकार की वनस्पतियों का समावेश हिता है किन्तु उनका वनस्पतिक भाग एक अथवा अनेक पेशियों का और प्रायः फैला हुआ तथा शाखायुक्त रहता है तथा इसको स्थाणु कहते हैं।
   उत्पादनक्रिया योगसंभव (Sexual) अथवा अयोगसंभव (Asexual) ऐसे दो प्रकार की हो सकती हैं परन्तु दोनों प्रकार के नियम साथ २ लागू नहीं होते।
   (२)लिंगकरंडक धारी- (Archigoniatae) इस भाग की वनस्पतियों में यह दोनों ही भाग पाये जाते हैं और दो पीढ़ियॉं स्पष्ट दिखाई देती है। अयोगसंभव अलिंगपीढ़ि (Sporophyte) से जननपेशियॉं होती हैं। उस जननपेशी से योगसंभव लिंगपीढ़ि (Gamatophyte) उत्पन्न होती हैं। इस पीढ़ि में इन्द्रियॉं निकलती हैं तथा उनमें के नर तथा स्त्री भागों के संयोग से तैयार हुवे जननपेशी पहिले के सदृश जननपेशी उत्पन्न होने से पेड़ तैयार होते हैं। लिंगकरण्डक धारी में दो भाग की कुछ वनस्पतियॉं पत्तों के समानफैलने वाली होती हैं तथा कुछ में पत्तें तथा तना भली भांति दिखाई देते हैं। इन वनस्पतियों में मुख्य जड़ें नहीं रहती तथा उनकी बाहिनियॉं जब रही होंगी उस समय बिलकुल सादी होगी। अलिंगपीढ़ि एक छोटे फल के सदृश कवच के भाग की होती है और वह करोब २ मुख्य वनस्पति पर अवलंबित रहती हैं। किन्तु लिंगपीढ़ि बहुत बड़ी होती है और वह मुख्य वनस्पति ही के सदृश दिखाई पड़ती है। (२) वाहिनीमय अपुष्प वर्ग (Pterridophyte) इस भाग में के वनस्पति की लिग्ड्पीढ़ि छोटी होकर स्थाणुरूप में रहती है। लिंगपीढ़ि में (Sporophyte) तना पत्तें तथा जड़े अच्छी तैयार हुई रहती हैं। इस दृष्टि से ये वनस्पतियॉं सपुष्प वनस्पति के सद्श कही जा सकती हैं।
   स्थाणुवर्ग-(Thallophyte) इसका मुख्यतः