पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/९०

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जंगल में खोजते समय दमयन्ती को एक विशाल अजगर ने निगलना शुरू किया। तब दमयन्ती ने बडे ज़ोरसे चिलाना आरम्भ किया। उसके शब्द को सुनकर एक व्याधने आकर उस अजगर ओ मार डाला और दमयन्ती को उससे मुक्त किया। इससे स्पष्ट होता है है कि अजगरोँ का भय हिन्दुस्तान में प्राचीन काल से ही है। अजन्ता पहाड - बुलडाना जिलेके दक्षिणी प्रदेश में अजन्ता पहाड फैला हुआ है। इसे चांदोर, सातमाला। इनह्यद्रि सह्यद्रि आदि भिन्न भिन्न नामोँ से पुकारते है। पश्चिमकी ओर जो सह्यद्रि पर्वत है उनमें जैसे पत्थर मिलते वैसे ही इसमें भी मिलते है। नासिक जिले में मनमाड के पाससे सह्यद्रि पर्वत से यह आरम्भ होता है ओर पूर्वकी ओर ५० मील तक फैला हुआ है। औसत ऊँचाई ४००० फुट है, पर कहीं कहीं इससे भि ज्यादा है। इसमें एक जगह बहुत बडा दर्रा है जहाँसे होकर जी० आइ० पी० रेलवे लाइन गई है। मनमाडासे आगे अकईसे फिर इसका सिलसिला शुरू होता है। आगे चलकर कासारीके पाससे इसकी एक शास्त्रा और फूटती है जो ५० मील तक चली गयी है। वहाँ से यह बरार तक पहुँच गयी है। निजामके राज्य में परभनी और निजामावाद में भी यही पहाड है और वहाँ उसका नाम सह्यद्रि है। ये पहाड दक्षिणाके पठारकी उत्तरी सीमा प्रतीत होते हैं। पहले गुजरात अथवा मालवा के व्यापार मनमाड और कासारी दरौंसे होते थे। अजन्ता इस समय निजामके राज्यमें है और यह बौद्ध कालीन पत्थरकि खुदाई का बहुत सा अवशेष है। इस पहाडमें जहाँ वहाँ बहुतसे किले है। ऊँचे शिखर- मारकिंदकी (मार्कणडेय) ऊँचाई ४३८४ फीट है। ८०८ ई० में राजा लोग यहाँ रहते थे। यह बागलाना जानेके मार्ग पर स्थित है। इसी मार्ग पर सप्तश्र्टंग नामकी श्रेणी है जिसकी ऊँचाई ४६५९ फीट है। धोडप- इस पहाड का सर्वोच्चशिखर है (४७४१ फीट) और तुद्रई ४५२६ फीट है। आईने अकबरी में इसका उल्लेख हुआ है। उसमें इसका नाम सहिया वा सहसा मिलता है। अजन्ता गुफायें- ये प्राचीन स्मारक निज़ाम के राज्य में है। उ० अ० २०'२५ से पू० देशां ७६१२ में स्थित है। गुफायें फर्दापुरसे दक्षिण पश्चिम की ओर साढ़े तीन मील पर अजन्ता अथवा सह्याद्रि पर्वत की एक मुख्य घाटी में है। यहाँ जाने के लिये जमनेर ब्रांच लाइन (जी० आई० पी० रेलवे) के पाचोरा जंक्शन से पाहुन स्टेशन पर उतरना चाहिये। यह जमनेर से २५ मील है। यहाँ से २५ मील निज़ाम के राज्य में होकर सड़क से अजन्ता गाँव तक जाना पड़ता है। गाँव से गुफा तक पहुँचने के लिये पर्वत की तीन चार श्रेणियों को पार करना पड़ता है। गाँव से गुफा की दूरी भी लगभग तीन मील की होगी। यह पहाड़ी रास्ता बहुत कुछ ऊँचा नीचा टेढ़ा़ मेढ़ा और कष्टदायक है। गुफा के पासकी घाटी भयानक तथा बिल्कुल सुनसान में है। पर्वत पर्वत की शिखा पर पहले लेणापुर नामक एक गाँव था। वहाँ जाने के लिये गुफाऔं के भीतर से सीढ़ियाँ खोदकर रास्ता बनाया गया था। प्राचीन काल में ये गुफायें सड़क के किनारे पर ही थीं। यहाँका प्राकृतिक वनदृश्य अत्यन्त मनोहर है। ह्यु एनसांग (चीनी यात्री) ने इन गुफाओं का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है किन्तु उसने स्वयं ये स्थान नहिं देखे थे (Stan. Julien Memo, Sor. les. cont Occident II 151) उसके वर्णन से ऐसा विदित होता है कि ये गुफायें उस काल में बौद्ध धर्माचलम्त्रियों का तीर्थस्थान था और सहस्त्रों मनुष्यों का आवागमन लगा रहता था। आगे चलकर जब बौद्ध धर्म का धीरे धीरे ह्रास होने लगा तो इन स्थानोंका भी महत्व बहुत कुछ घट गया। धीरे धीरे वहाँ की व्यवस्था भी खराब होने लगि और वहाँ जानेवाले यात्रियों को अड़ोस पड़ोस के जङ्गली तथा क्रुर कोल भील लूट लिया करते थे तथा उनको जङ्गली जानवरों को भी भय रहता था। अतः यहाँ की आमदरफ़्त क्रमशः घटने लगी और यह स्थान उजाड़ होने लगा। यही स्थिति १८२१ ई० तक रही। उसके बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल मेँ मद्रास के कर्मचारियों को उस प्रान्तके निवासियों से इन गुफाऔं का पता चला। यद्यपि मार्ग में हर प्रकार की असुविधा और अनेक भय की आशंका थी तो भि सर जेम्स ऍलेक्ज़ेणडर (Sir James Alexander)ने इस सबकी परवाह न कर के वहाँकी यात्रा की और वहाँ सकुशल पहुँच गया। उन गुफाऔँ को देख्कर उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। वहाँसे लौटकर उन्होंने इसकी चारों ओर प्रसिद्धि करना प्रारम्भ कर दी। १८४९ ई० से १८५५ ई० तक में कोर्ट आफ शाईरेक्टर्स ने मेजर बिमको यहाँ के चित्रों का