लिये ही उस पर प्रेम करना चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता।"*
वेद कहते हैं कि आत्मा ब्रह्म स्वरूप है, वह केवल पंच. भूतों के बंधनों में बंध गया है और उन बंधनों के टूटने पर वह अपने पूर्व पूर्णत्व को प्राप्त हो जायेगा। इस अवस्था का नाम मुक्ति. है, जिसका अर्थ है स्वाधीनता—अपूर्णता, जन्म-मृत्यु, आधि-व्याधि से छुटकारा ।
आत्मा का यह बंधन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता है और उसकी दया शुद्ध, पवित्र स्वभाववाले लोगों को ही प्राप्त होती है । अतएव पवित्रता ही उनके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है । जब उनकी कृपा होती है तब शुद्ध या पवित्र हृदय में वे आविर्भूत होते हैं। विशुद्ध और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्वर- दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है। "तब, और केवल तभी उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती है, सभी संदेह दूर हो जाते हैं।"
नाहं कर्मफलान्वेषी राजपुत्रि चराम्युत।
ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत।।
धर्म एव मनः कृष्णे स्वभावाच्चैव मे धृतम्।
धर्मवाणिज्यको हीनो जघन्यो धर्मवादिनाम् ॥
-महाभारत, वनपर्व, ३१/२/५
भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यते सर्व संशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥
--मुण्डकोपनिषद्, २।२।८