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ज्ञान विरह कौ अग ]
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शब्दार्थ— हिरदा = हृदय । दौ - दावाग्नि । बलै = जलै । लखै = देखै । लाई = लागी ।

भल ऊठी भोली जली, खपरा फूटिम फूटि ।
ओगी था सो रमि गया,आसणि रही विभूति ॥४॥

सन्दर्भ— ज्ञान की अग्नि मे असार तत्व विनष्ट हो गये और योनी ब्रह्मा नन्द मे लीन हो गया ।

भावार्थ — भल अग्नि मे शरीर रुपी भोली जल गयो और खरर फूट गया । योगी ब्रह्म मे रम गया और आगन पर केवल वस्त्र अवशेष रह गई ।

शब्दार्थ - भल- अग्नि । भोली = शरीर । खपरा - खप्पर - खोपड़ी फूटिम = फूटि - फूट गया । जोगी = योगी । आसणि - आमन । विभूति = राख ।

अग्नि जु लागी नीर मैं, कँदू जलिया भारि ।
उतर दषिण के पंडिता, रहे बिचारि बिचारि ॥५॥

संदर्भ - ज्ञान की अग्नि के लगते हो माया और माया के तत्व विनसष्ट हो गये ।

भावार्थ - ज्ञान की अग्नि के लगते हो माया का जल और उसके सहायत तत्व विनष्ट हो गये । इस आश्चर्यजनक कृत्य को उतर दक्षिण के पण्डित देखते हो रह गय ।

शब्दार्थ - नीर = जल, माया का जल । कन्दू = कदँम = कोचढ । भारि = सम्पूर्ण ।

दौ लागी सायर जल्या, पंपो बैठे आइ ।
दाधी देह न पालवैं, सतगुर गया लगाय ॥६॥

सन्दर्भ - ज्ञान की अग्नि के लगते हो माया का मागर जल गया प्रौर आत्मा रुपी पक्षी को मुयित हो गई ।

भावार्थ - ज्ञान को अग्नि के प्रज्यसित हो जाने पर माया का सागर भहमो भूत हो गया ।आत्मा रुपी पक्षी जो माया रुपी सागर के निरट पे , अब निरिचन्त हो गये । ज्ञानागिन से प्रदग्ध देह भौतिक ददद मे है । यह अग्नि सतगुरु ने नना दिया ।

शब्दर्थ - दौ = दावाग्नि । मायर = सागर पंपो = रधो । दापी=दघ । पालयै=चड़ेतौ है ।

गुरु दाधा चेला जल्या, चिरटा लागी आगि
विणका बपुड़ा ऊचरया ,गलि पुरे फै लागी ॥७॥