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[कबीर की साखा
 

 

विशेष―तुलना कीजिये―

कोउ न काहु सुख दुख कर दाता।
निज कृत कर्मं भोग सुनु भ्राता॥

मानस-अरण्यकाण्ड

शव्दार्थ―अब―आम।

काया देवल मन धजा, बिषै लहरि फहराइ।
मग चाल्यां देवल चलै, ताका सर्बस जाइ॥२८॥

सन्दर्भ―मन के अनुसार कार्य करने पर सर्वस्व नष्ट हो जाता है।

भावार्थ―शरीर रूपी मन्दिर है और उसके ऊपर फहराने वाली ध्वजा मन है। और ध्वजा विषय वासना की चंचल वायु लहरो से फहरने लगती है यदि शरीर रूपी मंदिर मन रूपीध्वजा के कहने से चलायमान हो जाता है तो समझ लेना चाहिए कि उसका सर्वस्व नष्ट हो जायगा।

शब्दार्थ—देवल―देवालय, मन्दिर। धजा=ध्वजा।

विशेष―सागरूपक।

मनह मनोर्थ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ।
पाँणी मैं घीव निकसै, तौ रूखा खाइ न कोई॥२६॥

सन्दर्भ―यदि मन की इच्छाएं पूरी हो जाया करे तो फिर कभी किस बात की?

भावार्थ―मन की इच्छाओ का परित्याग कर देना चाहिए। क्यो कि जो कुछ मन चाहता है वह सब कुछ पूरा हो जाना सम्भव नहीं है। यदि जल को मथने से ही घो निकलने लगे तो इस संसार मे फिर कोई व्यक्ति बिना घी का सूखा भोजन क्यो करे? किन्तु वास्तविकता यह है कि पानी मे घी निकलता नही। मन की इच्छाएं पूरी होती नही।

शब्दार्थ―मनोर्थं=मनोरथ।

काया कसू कमॉणज्यू पेच तत्त करि बाँण।
मारौं तौं मन मृग कौ नहीं तो मिथ्या जाँण॥३०॥

सन्दर्भ―उपदेश को क्रियान्वित भी करना चाहिए।

भावार्थ―इस शरीर को इतना अधिक साधना मे प्रेरित कर दूं कि यह धनुष के समान हो जाय फिर उस पर पंच तत्व का वाण चलाकर मनरूपी मृग को मार डालूँ तब तो मुझे ठीक समझना अन्यथा मेरी उपदेशो को मिथ्या हो समझना।