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७०६ ] [ कबीर

    (i) लोई कबीर की पत्नी का नाम है। कुछ लोग लोई को कबीर की  शिष्या मानते है। इस प्रकार इस पद मे चारितपरक सकेत है।
    (ii) समभाव देखिये-
                 अवलौं नसानी, अब न नसैहीं।
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        मन मधुकर पन कै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहीं।
                                         (गोस्वामी तुलसीदास)
                          (२७४)
    कबीर बिगरिया रांम दुहाई,
            तुम्ह जिनि बिगारौ मेरे भाई॥ टेक॥
    चदंन कै ढिग विरष जु भैल,बिगरि बिगरि सो चदंन ह्वै ला॥
    पारस कौ जे लोह छिवैगा,बिगरि बिगरि सो कचंन ह्वै ला॥
    गंगा मै जे नोर मिलैगा,बिगरि बिगरि गंगोदिक ह्वै ला॥
    कहै कबीर जे रांम कहैला,बिगरि बिगरि सो रांमहिं ह्वै ला॥
      शब्दार्थ- ह्वै ला= हो जाएगा। पारस= वह पत्थर जिसके  स्पर्श से लोहा स्वर्ण वन जाता है।
    छिवैला= छुएगा, स्पर्श करेगा।
       संदर्भ- कबीरदास सत्सग की महिमा का वर्णन करते है।
       भावार्थ- राम की दुहाई देकर सच कहता हुं कि भगवद् भक्ति करके मै तो बिगड ही गय हुँ अर्थात् संसार के उपयुक्त नही रह गय हुँ। पर मेरे भाइयो। अब तुम मेरी तरह भगवद्  भक्ति के मार्ग पर चल कर मत बिगडना। तुम संसार मे ही अनुरक्त बने रहो-यही त्र्यजना है। प्रकृति का नियम ही यह है कि जो वृक्ष चन्दन के वृक्ष के पास होगा, वह चन्दन के सम्पर्क के कारण धीरे-धीरे परिवर्तित होकर चन्दन ही बन जाएगा। जो लोहा पारस का स्पर्श करेगा, वह ऋमश. परिवर्तित होकर स्वर्ण हो जाएगा। जो पानी गंगा से मिलेगा, वह गंगा जल के रूप मे परिवर्तित हो जाएगा। कबीरदास कहते है की जो व्यक्ति राम का नाम लेगा, वह धीरे-धीरे(अज्ञान से मुक्त होकर) राम-रूप हो ही जाएगा।
     अल्ंकार- (i) पुनरुत्ति परकाश--बिगरि-बिगरि
            (ii) तद्गुण-- चन्दन ह्वै ला, पारस ह्वै ला, ग्ंगा ह्वै ला, रामहि ह्वै ला।
     विशेष--(i) बिगारि मे लक्ष्ण लक्ष्णा है तथा संसारी व्यक्तियों के प्रति तीक्ष्ण व्यंग्य है।
           (ii) सत्संग की महिमा का वर्णन है-तुलना करें--
          (क) सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई।
                                        (गोस्वामी तुलसीदास)