पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५०८

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प्रनथवली] [८२३

   श्ब्द।थ-ज।ति=ज।नकर । घादिय।ल=बड। धट। । ध।ल्कर=महल ।
   स्न्धरभै-कबिर कहते हे कि आवागमन से मुक्ति के लिए र।म-र।म का 

भजन करो ।

   भ।व।र्थु-नुसिह,माधव ,मद्सुधन,बनवारि आदि राम ही हे,ऐस। समफ्रु कर तुम रम क भजन करो । विभिन्न अवत।र उस एक परम तात्व के ही अभियाक्त रुप हे।) बजने वाल। घटा अथात् प्रथि पल वयतित होत। हूआ समय पुतिदिन यहीज़ान देता है कि यह  ससार घु ए के महल के समान मिथया एवं नशवर हे । जैसे नदी नाव का सयोग क्षणिक हे । ये सारे समवघ उसी प्रकार तोते  माता ,पिता एव पुत्र  का सयोग आकस्मिक एव क्षणिक हे । ये सारे समवघ उसी प्रकार मिथ्या ,नीरस एवं भ्रम है जिस प्रकार तोते के लिए सेमर का भल । यह ससार जल के बुलवुले के समान क्षणिक एव नशवर हे । कबिरदास कहते हे की जीभ से राम-नाम कहते का अभ्यास बनाए रखो  जिससे गभं-वास (पुनजनम) से मुति प्राप्त हो सके ।
   अलंकार--- (I) उल्लेख एक ही तत्व का विभिन्न नामें का वणेन हे ।
             (II) उपमा -धुवा जल बुदवुदा ऐसे ।
            (III) रूपक धुवा ससार ।
            (IV) उदाहरण -जैसे अग ।
   
   विशेष--(I) ससार की नरवरता एव निस्सारता का प्रतिपादन है ।
         (II) निवैद सचारि की व्यजना हे ।
         (III)ग्यान कथै गरिधार -लक्षण ओर मानवीकरण है ।
         (IV) सम्पूर्ण देवताओं मे वही एक परमतत्व व्याप्त हे । यह अभेद वूद्धति ही भारतीय टूष्टि की विशेषता हे । कबिर ने उपासना के क्षेत्र भेत्र मे इसी भारतीय पद्धति को अपनाया हे ।
         विभिन्न पोराणिक अवतारों के नामों का वणेन यह प्रकट करता हे की कबीर के ऊपर जन-मानस को मान्य पोराणिक संस्कृति का व्यापक प्रभाव था ।
         (VI) धूवा धोलह हे ससार -समभाव के लिए देखों -
                राम जपु ,राम जपु,राम जपु,वावरे ।
                जग नम वाटिका रही हे फलि फुलि रे ।
                धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भुलि रे ।
                                         (गोस्वामी तुलसीदास)
         (VII) नल दुल मलभ लकीर--पाठ अस्पष्ट हे । हमने इस पत्ति का अथँ डा० माताप्रसाद गूप्त तथा डा० भगवतस्वरुप मिश्र द्धारा किए अथौं के आधार पर लिख है।
                 (३७१)

रसनां रांम गुन रमि पीजे ,

                 गुन अतित निरमोलिक लीजै ।। टेक ।।