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[ कबीर
 

अलंकार- (१) वकोक्ति- कतहूँ के जासी ।

(२) रूपक- राम नाम मनि । भोसागर । लहरि विकारा ।

(३) साग रूपक - भौसागर विस्तार ।

विशेष- भृ 'गी कीट न्याय - भृ ग से चिपक जाने पर कीडा भृंग रूप हो जाता हे (आत्म्सात कर लिया जाता है) यह वेदान्तियो का प्रभाव है।

[३] बड़ी अष्टपदी रमैणी

( ६ )

एक बिनांनीं रच्या बिनांन, सब अयांन जो आपै जांन ॥ सत रज तय तम थै कीन्हीं माया, चारि खानि बिस्तार उपाया ॥ पंच तत ले कीन्ही बंदन , पाप पुनि मांन अभिमानं ॥ अह्कार कीन्हे माया मोहू, स्ंपत्ति बिपति दीन्हों सब काहू ॥ भले रे पोच अकुल कुलवंता, गुणी निरगुणीं धन नीरगुणी धन नीधनवंता ॥ भूख पियास अनहित हित कीन्हां, हेत मोर तोर करि लीन्हां ॥ :पच स्वाद ले कीन्ही बंधू, बंधे करम जो आही अबधू ॥' अवर जीव जत जे आहीं, सुकट सोच बियापै ताहीं ॥ निंद्या अस्तुति मांन अभीमांना, इनि भूठै जीव हत्या गियांना ॥ वहू विधि करि ससार भुलावा, भूठै दोजगि साच लुकावा ॥ माया मोह धन जोबनां, इनि बंधे सब लोइ । झूठ वियापिया कबीर, अलख न लखई कोइ ॥

:शर्ब्दाथ-' विनानी = विज्ञानी , वैज्ञानिक । विनान = विज्ञानमय । खानि= ओर अथवा चार प्रकार की सृष्टि ।

सन्दर्भ- कबीर अज्ञानमय ससार का वणर्न करते है ।

भावार्थ- एक विज्ञानिघन भगवान ने इस विज्ञानमय जगत की रचना की है । जो जीव केवल अपने आपको जानता है, वह अज्ञानी है । भगवान ने सतोगुण, रजोगुण अौर तमोगुण से करके चारो ओर फैला दिया गया है । इसको पाच तत्वो मे बाघ दिया गया है । अर्थात प्रत्येक पर्दाथ की रचना केवल पाच महाभूतो के आधार पर कर दी गई है । पाप-पुण्य, मान-अभिमान , अह्ंकार, माया-मोह आदि सभी इन पाचो तत्वों तथा उनकी प्रकृति से उत्पन्न हुए है । भगवान ने सबको कर्मानुमार सम्पत्ति ओर विपत्ति प्रदान कर दी है । भले- बुरे, कुलीन-अकुलीन,गुणी-अगुणी धनी-निधर्न, भूख-प्यास, हित-अहित, स्नेह के आधार पर मेरा-तेरा आदि के युग्मो की सृष्टि भगवान ने की । पंच इंन्द्रियो के भ्वादों को वचन का हेतु बनाया ओर उस वघंन मे णादवत वघंन रहित जीव स्व्य ही वघ गया । जितने भी निम्न कोटि के जीव है उन सबको संकट ओर चिन्ता व्याप्त कर लेते है । निन्दा-स्तुति, मान अहंकार मे सब यद्यपि भृठे हैं, नधापि उन्होनें जीव वे ज्ञान-स्वरूप को नष्ट कर दिया है ।