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[ कबीर
 

बादल मुभ्क कर बरसते नही है और मेरे प्रति उदासीन रहते हुए चले जाते हैं । परन्तु मेरा चित्त रूपी चातक ससार के विषय रूपी समुद्र के जल द्वारा अपनी प्यास बुभ्काने की आशा नही करता है । विषय सुखो से भरा हुआ यह ससार-समुद्र उसको अच्छा नही लगता है । वह प्यास के कारण भले ही मर जाए, परन्तु पिएगा तभी जब आप प्रेम की स्बाँति बूंद पिलाएंगे। हे प्रियतम,आप मिलें और मेरा मनोरथ पूरा कर दें। तुम्हारे वियोग मे अत्यन्त निराश हो गया हूँ। मै निराश रंक तभी अमित सम्पति की प्राप्ति समभ्कूंगा जब आप मे मेरा मन पूर्ण रूपेण रम जायेगा । जिस प्रकार कमलिनी का एकमात्र अवलम्ब जल होता है, उससे पल भर भी वियुत्त्क हो जाने पर सूर्य का ताप उसे जला देता है, वैसे ही जीवात्मा अपने प्राणाधार राम के प्रेम से वचित होकर अत्यधिक दुख का अनुभव करती है । वासनात्मक मन रूपी सुर्य अधिक तीक्ष्ण होकर जीवात्मा रूपी कमलिनी को जलाने लगता है । मोह रूपी माघ मास की जडता ने जीवात्मा रूपी कमलिनी पर तुषारापात किया परन्तु ईश्वर प्रेम रूपी ब्सत की उष्णता ने (जाग्रत होकर) जीवन-वन की रक्षा कर ली । उन्त: करण की सदूवृत्तियाँ अपने--अपने अनुरूप उस प्रेम मे अनुरत्त्क हो गई । मन रूपी मधुकर प्रेम-परिमल मे मस्त हो गया । उस चैतन्य रूपी विकसित वन मे चित वृत्ति रूपी कोकिल का गहन मधुर सगीत गु जारित होने लगा । इस प्रकार प्रेम की इस वसत ॠतु शरीर की सम्पूर्ण वृत्तियो को रुचिकर हुई---इसने समस्त वृत्तियो को उल्लसित कर दिया । जीवात्मा रूपी विरहिणी की एक-एक रात युगो के समान हो गई थी । उसको प्रियतम से विना मिले हुए अनेक कल्प बीत गये थे । अब आत्मा को वोघ हुआ है---जीव ने रहस्य को समभ्क लिया है । उसने इस जगत के खेल को मिथ्या समभ्क लिया है औ उसको भगवान राम के प्रेम की अमूल्य निघि प्राप्त हो गई है । अब भगवान की कृपा हो गई है और चारो ओर प्रेम-संगीत सुनाई दे रहा है--आनन्द ही आनन्द है । (हृदय मे अनहदनाद का मधुर सगीत सुनाई दे रहा है) भगवान राम सहज रूप से उसके हृदय के राजा हो गये हैं अर्थात् भगवान के प्रति उसके मन मे सहज स्वाभाविक भत्ति उत्पन्न हो गई है । विषय-वासनाओ अथवा प्रभु विरह मे जलती रहने वाली जीवात्मा को सम्पूर्ण सुखो के मूल प्रेम-जल की प्राप्ति हो गई है । कबीरदास कहने हे कि यह राव गुरु की कृपा का फल है । अब मेरे मोह एव अज्ञान जनित सशय और कष्ट ममाप्त हो गये हैं ।

अलफार--(I) स्पकातिशयोत्कि--विपहर|

(II) विरोधामारा की व्यजना-जरि जाग,खेल मोरा।

(III) साग रूपक-मास...जाई,मेघ..पियावै,माघ....मांना।

(IV) मभग पद यमक---गुन औगुन।

(V) अतिशयेक्ति--अपने ..पारा।

(Vi) उदाहारण--नलिनी .... प्रजारा।

(VII) स्पक---मन पतंग,जल... ... मूल|