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प्राक्कथन

कबीर साहित्य अपनी विभिन्न विशेषताओं के कारण हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सहजता, सरलता, स्वाभाविकता की दृष्टि में यह अद्वितीय है। कबीर अपने युग के सर्वाधिक चेतनशील प्राणी थे। उनकी वाणी में युग की प्रवृत्तियों की प्रतिध्वनि और समस्याएँ मुखरित हैं। उनका साहित्य, उनके समाज सुधारक, धर्म सुधारक, क्रान्तिकारी और अद्भुत समन्वयकारी रूप को प्रस्तुत करता है। कवियों के आलोचक और निन्दक कबीर स्वतः महाकवि, अद्भुत काव्य शक्ति से सुसम्पन्न, सम्वेदनशील महाकवि थे। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जितने बड़े महाकवि थे, उतने बड़े महामानव भी। अन्तस और माननिक परिस्थितियों को प्रभावित करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। वे समाज के उन्नायक सत्य के गायक और उच्चकोटि के आत्मदर्शी थे। उनकी अभिव्यंजना शक्ति बड़ी शक्तिशाली और प्रवल थी। वे सन्तमत के प्रवर्त्तक थे और दलित वर्ग के सबसे बड़े हिमायती थे। उनके साहित्य की उपयोगिता इसी बात से अनुमानित हो सकती है। कि आज का युग पुरुष, जननायक, महामना, उदारचेता मनस्वी गाँधी भी उनसे प्रभावित था।

कबीर साहित्य, कबीर-दर्शन और कबीर की साखियों की विवेचना और टीका अनेक विद्वानों ने की हैं। इस दिशा मे यह एक और अभिनव प्रयास है। महाकवि तुलसीदास ने सत्य ही कहा है कि—

"सब जानत प्रभु प्रभुता सोई।
तदपि कहे बिनु रहा न कोई॥"

इस टीका या भाष्य में लेखिका ने कबीर साहित्य के सम्बन्ध में अपनी अनुभूति और प्रतिक्रिया को व्यक्त करने की चेष्टा को है और इस बात का प्रयत्न किया है कि पाठकों को कबीर को आत्मा के दर्शन सही रूप में कराये जा सकें।

लेखिका ने अनुभव प्राप्त जिन विद्वान लेखकों, आलोचकों की रचनाओं का उपयोग किया है, उनके प्रति हृदय से कृतज्ञता प्रगट करती है।

 
१५ जुलाई, १९६८
सावित्री शुक्ल