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३०५] [कबीर की साखी

सन्दर्भ-संसार् के सभी प्राणी अह्ं के कारण संसार मे डूबे रहते हैं। भावार्थ- कबीरदास साधनावस्था मे ब्रह्माण्ड मे पहुंच गये और उडकर इस संसार की सीमा को लांघ गए।इस संसार के सभी प्राणी पशु,पक्षी,जीव जन्तु सब अह्ं की भावना के कारण ससांर-सागर मे डूब रहे हैं। शब्दार्थ:पखेरु=पक्षी।

सद प्राणी पाताल का,काढि कबीरा पीव। बासी पावस पडि मुए,विषै विलंवै जीव॥५॥ सन्दर्भ: संसार के सभी प्राणी विषय -वासना मे फ्ंसे रह्ते हैं और ज्ञान पर आधारित लोग ज्ञान रस पीते रहते है। भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि ऐ साधना के मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियो! तुम पाताल का बहुत गहरे का सुन्दर स्वच्छ जल पियो किंतु विषय वासना के वासी जल पीकर कितने ही विषयी जीव अपनी आत्मा का हनन कर रहे हैं। शब्दार्थ:सद प्राणी=स्वच्छ जल।

कबीर सुपिनैं हरि मिल्या,सूतों लिया जगाइ। भाखि न कींचौ उरपता,मति सुपना है जाइ॥६॥ सन्दर्भ:ज्ञान को एक वार पा लेने पर ऐसा प्रयास करना चाहिए कि वह पुन्ः नष्ट न हो जाय। भावार्थ:कबीरदास जी कहते हैं कि स्वप्न मे मुभ्के परमात्मा से साक्षत्कार हो गया और उन्होने मुभ्के सोते से जगा लिया,मोह निद्रा को समाप्त कर दिया। अब मैं इश्वर के उस साक्षत्कार को सच्चा ही बनाए रखने के लिए आँखे ही नही बन्द करता हूँ ताकि फिर मैं मोह को निद्रा मे न फंस जाऊँ। मुभ्के इस बात का भय है कि यह ईश्वर-कृपा स्वप्न-तुल्य दुलंभ और अप्राप्य न हो जाये। शब्दार्थ:मति=ऐसा न हो कि।

गौव्य्ंद के गुंरण बहुत हैं,लिखे जु हिरदै मांहि। डरता पांणी नां पीऊँ, मति वै धोये जाहिं॥७॥ सन्दर्भ:ईश्वर-भक्त इस वात का प्रयास करता है कि उसका प्रभु प्रेम कही फीका न पढ जाय। भावार्थ:परमात्मा के अनेक गुण मेरे ह्रद्य पढल पर लिखे हुए हैं और इसी डर से मैं पानी भी पींता हू कि कही वह पानी पीने से घुल न जाय। शब्दार्थ:गौव्य्ंद=गोविंद्