पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७६७

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(111) हरषि सोक तीरा-प्रत्येक कार्य की परिप्रगति इष्ट की प्राप्ति (सुख) अथवा इष्ट के वियोग एव अनिष्ट की प्राप्ति (दुख) मे होती है।

   (111) वीर काम कोधादि पर विजय प्राप्त करने के लिए साधना करने वाला ही 'वीर' है। जैन धर्म के 'जिन' का अर्थ 'वीर' ही है।गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि-
            महा अजय संसार रिपु जीति सकय सो वीर।
                                    (रामचरितमानस)                         
                     (३२२)
   चलि-मेरी सखी हो,वो लगन रांम राया।
          जब तब काल बिनासै काया॥ टेक॥
   जब लग लोभ मोह की दासी,तीरथ ब्रत न छूटै जम की पासी।
   आवैगे जम के घालैगे बांटी,यहु तन जरि वीर होइगा माटी॥
   कहै कबीर जे जनहरि रगिराता,पायौ राजा रांम परम पद दाता।
     शब्दार्थ-लगत=प्रेम|बोटी=कुचल कर।
     संदर्भ -कबीरदास भगवद् भक्ति का प्रतिपादन करते हैं।
     भावार्थ-रे मेरी जीवात्मा सखी! तू राजा राम के प्रेम मे मग्न हो जाओ।
  यह काल किसी भी क्षण इस शरीर को नष्ट कर सकता है। तुम जब तक लोभ अौर मोह की दासी हो तथा वीर-व्रत आदि के फेर मे पडी    हुई हो,तब तक यम के बंधन से मुक्त नही हो सकोगी। यम दूत आएँगे अौर तुमको कुचल कर (पीस-पास कर) मार डालेंगे। तुम्हारा यह शरीर जल-जल कर मिट्टी हो जाएगा। कबीरदास कहते हैं कि जो लोग राम के प्रेम मे अनुरक्त हैं,वे उन राजा राम को प्राप्त करते हैं जो परम पद को देने वाले हैं।
    अलंकार-- (1)रूपकातिशयोक्ति  सखी।
             (11)जरि बरि,जब तब,वाटी माटी।
            (111)विशेषोक्ति की व्यंजना तीरथ पासी।
             (1v)वृत्यानुप्रास--पायो,परम पद। 
    विशेष--(1)वाह्याचार का विरोध है।
    (11)राम-भक्ति की महिमा का प्रतिपादन है।
   (111)'सखी' शब्द जीवात्मा अथवा अंत करण की वृत्ति के लिए उप-लक्षण है।
                     (३२३)
        तू पाक परमांनदे।
        पीर पैकंबर पनह तुम्हारी,मैं गरीब क्या गदे॥ टेक॥
        तुम्ह दरिया सबही दिल भीतरि,परमानंद पियारे।
        नैक नजरि हम ऊपरि नांही,क्या कमिबखत हमारे॥