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राजस्थान की रजत बूंदें

दो में से किसी एक को लाचार बताने के बजाए जोर तो इंद्र और भूण यानी पालर पानी और पाताल पानी के शाश्वत संबंध पर है। एक घड़ी भर बरसा पालर पानी धीरे-धीरे रिसते हुए पाताल पानी का रूप लेता है। दोनों रूप सजीव हैं और बहते हैं। धरातल पर बहने वाला पालर पानी दिखता है, पाताल पानी दिखता नहीं। इस न दिख सकने वाले पानी को, भूजल को देख पाने के लिए एक विशिष्ट दृष्टि चाहिए। पाताल में कहीं गहरे बहने वाले जल का एक नाम सीर है और सीरवी है जो उसे 'देख' सके। पाताल पानी को सिर्फ देखने की दृष्टि ही पर्याप्त नहीं मानी गई, उसके प्रति समाज में एक विशिष्ट दृष्टिकोण भी रहा है। इस दृष्टिकोण में पाताल पानी को देखने, ढूंढने, निकालने और प्राप्त करने के साथ-साथ एक बार पाकर उसे हमेशा के लिए गंवा देने की भयंकर भूल से बचने का जतन भी शामिल रहा है।

कुएं पूरे देश में बनते रहे हैं पर राजस्थान के बहुत से हिस्सों में, विशेषकर मरुभूमि में कुएं का अर्थ है धरातल से सचमुच पाताल में उतरना। राजस्थान में जहां वर्षा ज्यादा है वहां पाताल पानी भी कम गहराई पर है और जहां वर्षा कम है वहां उसी ७ अनुपात में उसकी गहराई बढ़ती जाती है। मरुभूमि में यह गहराई १०० मीटर से १३० मीटर तक, ३०० फुट से ४०० फुट तक है। यहां समाज इस गहराई को अपने हाथों से, बहुत आत्मीय तरीके से नापता है। नाप का मापदंड यहां पुरुष या पुरस कहलाता है। एक पुरुष अपने दोनों हाथों को भूमि के समानांतर फैला कर खड़ा हो जाए तो उसकी एक हथेली से दूसरी हथेली तक की लंबाई पुरुष कहलाती है। यह मोटे तौर पर ५ फुट के आसपास बैठती है। अच्छे गहरे कुएं साठ पुरुष उतरते हैं। लेकिन इन्हें साठ पुरुष गहरा न कह कर प्यार में सिर्फ साठी भर कहा जाता है।

इतने गहरे कुएं एक तो देश के दूसरे भागों में खोदे नहीं जाते, उसकी जरूरत ही नहीं होती, पर खोदना चाहें तो भी वह साधारण तरीके से संभव नहीं होगा। गहरे कुएं खोदते समय उनकी मिट्टी थामना बहुत ही कठिन काम है। राजस्थान में पानी का काम करने वालों ने इस कठिन काम को सरल बना लिया, सो बात नहीं है। लेकिन उनने एक कठिन काम को सरलता के साथ करने के तरीके खोज लिए।

कीणना क्रिया है खोदने की और कीणियां हैं कुआं खोदने वाले। मिट्टी का कण-कण पहचानते हैं कीणियां। सिद्ध दृष्टि वाले सीरवी पाताल का पानी 'देखते' हैं और फिर