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ही था। फिर भी यज्ञ प्रारम्भ हुशा और पृथ्वीराज को उसमें द्वारपाल पद पर कार्य करने के इंतु दूतों द्वारा अमंत्रित किया गया : | छिति छत्र वैध शरए सु सब्ब | तुम चलहु बेगे नह बिरम अब्ब ।। कुरमान दीन बहुश्रान तोहि । कर छरिये दावि दरबान होहिं ।। ५४, यह सुनकर दिल्ली-राज के सामंत गौवंदराज गौश्रा ने सतयुग, त्रेता और द्वापर के यज्ञों का उल्लेख करते हुए कहा कि---- जानौब तुम्ह पुत्री ने कोई । निरबीर पहुमि कबहूँ न होइ ।। ५८, और फिर स्पष्ट कह डाला कि पृथ्वीराज का जीवन रहते हुए यज्ञ नहीं हो सकतY ( छं० ५८-६० } } । दिल्ली का समाचार जानकर कन्नौज में यज्ञ-मण्डप के बाहर पृथ्वीराज की सुवर्ण-प्रतिमा द्वारपाल के स्थान पर स्थापित करने का निश्चय हो गया : | सोवन प्रतिम प्रथिराज जानि ! थपियै पूवरि दरबार बानि ।। ७०; यह सुनकर पृथ्वीराज ने यज्ञ विध्वंस करने का निश्चय किया--- मो उम्मै पहुपंग ! जय मंडै अबुद्धि कर ।। जो भंज इह जाय । देव विध्वंसि धुम पारे । कच करवत पाषान ! हथ्थ छुई बर वाग्गै ।। प्रजा पंग आरुही । बहुरि हथ्था नन लग्गै ।। अथिराज राज हंकारि बरे । मत सामंत सु मंडि धर ॥ कैमास बीर गुज्जर अदिल | करौ सूर एकठ्छ बर।। १०५; सामंतों से मंत्रण करके यह सम्मति हुई कि जयचन्द्र के भाई बालुकहराय पर आक्रमण करके उसे मारा जाय ( छं० १०६८, १२१-३२ )। इस विचार के फलस्वरूप चढ़ाई हुई और युद्ध ( छं० १५२-२२८८ ) में बालुकाराय वीरतापूर्वक लड़ता हुआ मारा गया । . भी फौज मधज्ज सा छंडि पंतं । हन्यौ बालुकाइ देख्यौ समथ्थं । २२८ स७ ४ | जयचन्द्र ने यह समाचार पाकर, थर्श का विनाश समझकर, पृथ्वीराज को बाँधने तथा चिपति रावल समर सिंह के साथ उन्हें कोल्हू में पेर : डालने की प्रतिज्ञा की : - बंध सु चाँप अब चाहुनि { विप्रथौ अग्य निहनैं प्रमान ।। २४, ..अहुज प्रथिराज सोहि । पीलों जु तेल जिस तिल दाहि ॥ २५,०४६