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१ १०५ ) विवाह की शेष शास्त्रीय रीतियाँ विधिवत् पूरी कर ली जाती हैं । इस ढंग के विवाह में कवि ने यदि पुरातन होते हुए भी युगीन संस्कार की नूतन प्रादेशिक विधियों और रीति-रिवाजों पर विस्तृत प्रकाश डालने का अवसर पाया हैं तो दूसरे में पूर्वराग, मिलन की युक्तियाँ, विप्रलम्भ, विरार, मोह, विस्मय, उद्यम, साहस, धैर्य आदि का चित्रण करने के कारण सरसता और आकर्षण की अपेक्षाकृत अधिकता है तथा उसके चित्त इनके इन मेंअधिक मा है। उसने ( स० २५, छं० २६८ में) अपनी सम्मति भी दे दी है कि गन्धर्व विवाह शूर वीर ही करते हैं। इस सम्मति ने रणानुराग में घुले हुए योद्धाओं को वांछित प्रेरणा अवश्य पहुँचाई होगी । मौत का खेल खेलने वाले रासो के इस प्रकार के परिणय अपनी अलौकिक छटा से स्तम्भित करने की क्षमता रखते हैं। मंत्र-तंत्र की कई होड़े दिखाने वाले इस काव्य में तत्रिंक कराना और उनकी युक्लियों की जच तो मिलती है परन्तु जिनके कारण सिद्धि सम्पादित हुई वे मंत्र नहीं बताये गये हैं। मंत्रों के स्थान पर स्तुतियाँ मिलती हैं । मंत्रों और स्तुतियों का आशय लगभग एक ही होता है अन्तर यह है। कि मंत्र का आकार छोटा और स्तुति का बड़ा होता है । (अ) भैरव मंत्र की दीक्षा और उसकी परीक्षा का निम्न प्रसंग देखिये : धरि कान मंत्र तीन कविय } परसि पाइ अर] दलिय }} । कर वे सु परिघा मंत्र की । चि अइसन अग् बलिय !! २६... फुनि मैत्रह भैरव जयत । डक्कु गरञ्जिय अन ।) ३०.... गैन गहर गंभीर धुनि । सुनि ससंक भय गात || अानन यग गॐ गंज हुन्न । जानि उक्का पात ।। ३१, स० ६ (ब) गज़नी दरबार के कवि दुर्गा केदार भट्ट के साथ मंत्र-तंत्र की होड़ में कवि चंद द्वारा देवी सरस्वती की मंत्र रूप में स्तुति इस प्रकार है : सेत वीर सरीर नीर सुचितं स्वेदं सुभ निर्मलं । स्वेत सति सुभाब स्वेत ससिस हंसा रसा आसनं । बाला जा गुन वृद्धि मौर सु वितं त्रिभे सुझं भसि । लंबोजा चिहुराय चंद्र बदनी दुर्ग नसो निश्चितं ।। १०८, १० ५८ पुत्र--- पृथ्वीराज के गर्भ:स्थिति होने और उनके जन्म, उत्सव तथा दान अादि का वर्णन कवि ने प्रथम समय में इस प्रकार किया है :