पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१२७)

________________

दलद गय तु न असन 1 दल-इन-गब्बे कापसासु } बोलहुत बाल देवनि सम्मान | वोल्हु तु बल्लु देवदं समा ।।। तुम्हू जानु नहीं क्षत्रिय हैं न केइ । हुम् ऊहू शशि खझि कोइ ? निर मुहरि कई ? होइ । शिबीर हथि कइय; या होइ ।। इम जंगल दास का ति दिल ।, जंह वासि कालिन्दि-कृत ! जनहि न ज जैवन्द भूल जाइए। रज्ज जयचंद-मू’ || जनहि तु एक झुरिनि पुस । जाइ दुइक्कु जोइपिए-पुरेसु । सुरइंदु बंस पृथ्वी नरेस | सुरिंदबंसहि वि-पारेसु ।। तिलु वर साहिब जेश । तिशिण बार साहि वंथि जेए' । मंजिया भूप भडिभीमरर ।। भेजिउ भूल भड भीमसेण ।। संभरि सुदेस सोमेस पुते । सयभरि-देह सोमेस-पुते ।। दानवतिरूप अवतार जुत्त । दागबतिरूव ऋअि धुत्त । तिहिं के सरल किमि जय होइ ! तहिं खंधि ससु किमि जगु होइ ।। पृथिमि नहीथ चहुने कोइ !! मुहबिहे किसु चहुअा कोई }} दिक्खयहिं सब्द तिहिं संवरूप ! दिक्खहिं सब्य ते सिंघ-रू । मांनाहि न जरिग मनि शान भूप ।सहि शा जरिए मणि अशा भूत्र है। अदरह मंद उठ गो बसिइ । आदरहु मंद उठि गङ विसिटछु । गामि सभा बुध्रि जन विङ !! मीणसभहे बुहजणु विइ । फिर चलि सब्ब केशव मं । रि चलेश्च स उच्च-सम्झि ।। भए म तिन कम जिमि सकल संझ । हुआ मलिझमल जिम सयलसंडिझा। परन्तु इन विद्वानों को यह निष्कर्ष कि रासो के उपलब्ध विविध संस्करणों की भाचा पश्चिमी हिंदी नहीं सः । बस, ० ग्रियर्सन प्रभृति विद्वत् । वर्ग का कथन है वरन् प्राचीन राजस्थानी है, वांछित प्रमाण के अभाव में निराधार ही ठहरती हैं। रासो के वृहम संस्करण को छोड़कर उसके अन्य संस्करण अभी देखने में नहीं आये परन्तु इन अन्य संस्करण पर प्रकाश डालने वाले पंडितों से यह स्वीकार किया हैं कि उनकी सम्पूर्ण सामुग्री सभा बाले संस्करण में उपस्थित है। इस परिस्थिति में उपस्थित * पृथ्वीराज-रासो' की भाषा-प उसे पश्चिमी हिंदी के समकक्ष रखती १. दि ओरिजनल पृथ्वीराजरासो ऐन अपभ्रंश वर्क, राजस्थाने भारती, भाग १, अंक १, अप्रैल सन् १६४६ ई०, ५०६३-१०३ ; | ३, वही, ५० ६३;