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पिय ने दिलबंती । अबक्ती यति गुज ने दिया !! घर सान सद्द हीन } भिनं किं मारी मा ।।११६५, ०६१; ( और कुछ गाथ। छन्द पिंगले में भी हैं ) परन्तु इनकी भापः मात्र के अावार पर रासो को भी कई फैसला कर अनुचित हैं । जैसे कोई रामचरितमानस' के श्लोकों की परीक्षा करके यह कह दे कि मानस की भाषा संस्कृत हैं वैसा ही निराधार वर्तमान रासो के उदाथा छन्दों की भाषा पर आधारित निर्णय भी होगा ! इस प्रसंग में इतना और ध्यान में रखना होगा कि प्रबंध की दृष्टि से रासो के ग़ाया छन्द महत्व नहीं रखते क्योंकि उन सबको हटा देने से कथा के क्रम में अस्तव्यस्तता नहीं होती । परन्तु यही वात उसके दूही अर कवित्त नामधारीं छप्पय छन्दों के बारे में नहीं कही जा सकती; इने छन्दों से ही उसका प्रबन्धत्व है परन्तु इनकी भाषा अपभ्रश नहीं वरन् पिंगल है । । मूल रासो की अपभ्रंश कृति कभी सामने आने पर उसे अपभ्रंश के प्रकार पर विचार करना अधिक समीचीन होगा | पुथ्वीराज के काल में अर्थात् बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में संस्कृत और प्राकृत की भाँति अपभ्रंश भी क्लासिकल ( सम्पुट्ट ) हो गई थी। तथा उसमें और ग्राम्य ( या देश्य } भाषा में भेद हो गया था। अस्तु उक्त काल में वह बोलाचाल की भपि न थी ! काशी और कन्नौज के गाहड़वालों की भाँति अजमेर के चौहान शासक बाहर से नहीं आये थे वरन् उक्त प्रदेश के पुराने निवासी धे इसीले वे साधारण जनता की भाषा की उपेक्षा नहीं करते थे, उनके यहाँ जिस प्रकार संस्कृत-रचनायें साइत र्थी, उसी प्रकार अपुश और देश्य मात्राओं की कृतियों को भी प्रोत्साहन मिलता था । यदि डिंपल और सिंगल का भेद विद्वत् जन न करें, जो राजस्थान की बारहवीं शताब्दी से बाद की रचनाओं के उपयुक्त विभाजन के लिए बहुत समुचित ढंग से किया गया है, तब ना० प्र० स० द्वारा प्रकाशित रासो की भाषा को उत्तर कालीन अपभ्रंश की मूल रचना का कुछ विकृत १. डॉ. गणेश वासुदेव तगारे, हिस्टारिकल त्रैमर व अपभ्रश, भूमिका, पृ० ४; । २. प्राचार्य हेमचन्द्र, काव्यानुशासनम् ६-६ ; ३. प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य का आदि काल, पृ० २५-३३;