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लिखी जा सकने वाली ‘अख्यिायिका के लक्षण बताये तदुपरान्त कथा के लक्षण बताते हुए लिखा---'वह गद्य या एच, संस्कृत, प्राकृत अथवा किसी भी भाषा में लिखी जा सकती है तथा उसका नायक धीर-शान्त होता है। और चौदहवीं शती के कबिराज विश्वनाथ ने सम्भवत: वाग्भट्ट के अनुपम तथा अपूर्व संस्कृत-गद्य-कथा-काव्य-ग्रन्थ 'कादम्वरी के आधार पर यह लक्षण बना डाला-कथा में सरस वस्तु राय के द्वार ही बनती है। इसमें कहींकहीं आर्या छन्द अौर कहीं कत्र तथा अपवक छन्द होते हैं। प्रारम्भ में पद्यमय नमस्कार और खलादिकों का चरित्र निबद्ध होता है। इस प्रकार देखते हैं कि संस्कृत-आचार्यों ने अख्यायिका और कथा के बाहरी लक्षणों का निर्देश तो किया परन्तु उनकी वस्तु के विषय में कुछ नहीं कहा } प्रतीत होता है कि इससे कालान्तर में संस्कृत के गद्य-लेखकों ने अलंकृत गद्य-काव्य लिखे । संस्कृत कथाकारों के आदर्श बाणभट्ट ने लिखा है-अपने प्रियतम की शय्या पर प्रीतिपूर्वक अाने वाली नवागता वधू की भाँति कथा अपने अाकर्षक मधुर अलाप और कोमल विलास (अर्थात् प्रेम-क्रीड़ाओं के कारण कौतुक-वश हृदय में राग उत्पन्न करती है । दीपक और उपमा अलंकार से युक्त, नवीन पदार्थ द्वारा विरचित, निरन्तर श्लेव के कारण सघन, उज्ज्वल दीपक सदृश उपयोग कथा, चम्पा की कलियों से सुथो और बीच-बीच में मल्लिका-पुष्पों से अलङ्कत माला के समान किसे श्राकर्षित नहीं करती। अठवीं शती के हरिभद्र ने कथा के चार प्रकार---अर्थ-कथा, कामकथा, धर्म-कथा और संकीर्ण-कथा---बताते हुए प्राकृत भाषा में यत्र-तत्र पद्य १. नायकाख्यातस्ववृता भाव्यर्थशंसिवक्त्रादिः सोच्छवासा संस्कृता गद्य युक्ताख्याथिका ।।८, ७, काव्यानुशासनन् ; २. धीरशान्तनायका गद्येन पद्येन वा सर्व भाषा कथा || ८, ८, वही; ३. कथायां सरस वस्तु गद्यैरेव विनिर्मितम् । ३३२ क्वाचिदत्र भवेदार्या क्वाचिद्वक्त्रापर्वक्त्रके । अदो पचैर्नमस्कारः खलादेवृत्तकीर्तनम् ।।६, ३३३, साहित्यदर्पण, ४. स्फुरत्कललापविलासकोमला करोति राएं हृदि कौतुकाधिकम् । रसेन शय्यां स्वयमभ्युपागता कथा जनस्याभिनवा वधूरि || ८ हरन्ति कं नोज्ज्वलदीपकोएमैनः पदार्थे रूपपादित: कथा:। निरन्तरश्लेषघना: सुजातथो महासजश्चम्पककुमलैरिव ।। १, ६, पूर्व भागः, कादम्बरी;