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( १५५ ) है ( छं० १०४-१७ ) । इस शुक-शुक वार्तालाप-सूत्र के अन्तर्गत अरे चलकर पढ़ते हैं कि जब योगिनी रूपिणी अप्सरा के प्रति सुमन्तु काम के वशीभूत हो रहे हैं ( ॐ० १५०५३), ते३ वह कहती है कि योग की उक्तियों से क्या होगा, श्यामा से प्रेम सहित रम करो जिससे पूर्व जन्म का फल प्राप्त हो :: वनिता बदंत चिप्पं । जोग जुगति केन' कुम्माये ।। स्यामा सनेह रमनं । जनमें फल पुन्चे दत्ताइ ।।१५४, इस अवसर पर सुमन्त के पिता जर्ज ऋत्रि शकर क्रसरा को श्रय दे देते हैं । छं० १५८-९९ ) | यही श्राप्ति ( रम्भः) अप्सरा पहुपंग (जयचन्द्र) के घर में जन्म लेकर संयोगिता के नाम से प्रसिद्ध होती हैं और ( मदन ) ब्रह्मणी के घर विनय-संग पढ़ने जाती है (छं० २००) । सुमन्त मुनि और अप्सर के वार्तालाप में सौपासना का उपदेश भी मिलता है। छ, १४३,४६}। इस इच में 57 बिन प्रीति न होइ' (६० १४८) देखकर आचार्य द्विवेदीजी का अनुमान हैं---यह असं तुलसी के मानस की कथा से प्रभावित होकर लिखा जा रहा हैं अस्तु यह सावधान करता है कि शुक-शुकी का नाम देखकर ही सब बातों को ज्यों-का-त्यों पुराना नहीं मान लिया जा सकता। परन्तु संबोशिता है। व्यक्तित्व शौर उसकी कहानी मूल रास की कथा है जिसे इ० दशरथ शम: विविध प्रमाण द्वारा सिद्ध कर चुके हैं । छियालिसवें त्रिनय कराल नाम प्रस्ताव के श्रोत के गन्धर्व-गन्धर्वी हैं: पुब्वा कथा संजोग की । कहत चंद बरदाइ } सुनत सु गंभब गन्नवी । श्रति अानंद सुहाई 1; १, फिर संयोगिता को शिक्षा देने के प्रकरण में शुकशुकी आ जाते हैं। शुकशुकी, द्विज-द्विजी और गन्धर्व-गन्धुर्वी इस प्रकरण में बहुत उलझे हुए से हैं परन्तु मूलतः वे इन्द्र प्रेरित गन्धर्व-गन्धर्वी हैं, जो शेष दो रूपों में देवराज का कार्य साधते हैं। जयचन्द्र अपनी किशोरी कुसारी संयोगिता की शिक्षा देने के लिए मदन ब्राह्मणी को नियुक्त करते हैं ! एक रात्रि के पिछले प्रहर में द्विजी, द्विज से संयोगिता के विषय में प्रश्न करती है । १, हिंदी साहित्य का अादिकाल, पृ० ६५ ; २. संयोगिता, राजस्थान भारती, भाग १, अंक २३, जुलाई-अक्टूबर १९४६ ई०, पृ० ११-२७ ; ...


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