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जाम एक निसि परिछली । दुजनिय दुजबर पुन्छ ।। प्रात अए धर दिसि उ । जे जन्छिन कहिं अच्छि ।।४३, और द्विज द्वारा उसकी पूर्ति करने पर ( छं० ४४०५१ }; द्विजी, कुमारी को युवती देखकर वधू-धर्म की शिक्षा तथा विनय की मर्यादा, गौरव और प्रशंसा का पाठ पढ़ाती हैं ( ॐ० ५६-१०७ } } इसी शिक्षा-काल में मदन ब्राह्मण के बरं के प्रांगण में अग्नि-वृक्ष पर रहने वाले असंख्य शुक-पिक पक्षियों में से एक शुकशुकी दम्पति संयोगिता की अपूर्व कथा के वक्ता-श्रोता के रूप में द्विज-द्विज नाम से दिखाई पड़ते हैं : सुधरता तर रत्तिर रत्तिय } दुज दुज्जानी बत्तर मतिय ।। गि प्रियं रज राजन मंडिय। जीहा जान अझै घह घडिय 11१०६ मदन वृद्ध बंभनिय । सार माननिय मनोबसि ।। कामपाल संजोग । विनय मंगलति पढति रस ।। तही सहारंतर एक । अंग अंगन धुन मौरिय । सुक पिक पंपिं असंष । बसहि वासर निसि धेरिय ।। इक बार दुजी दुज सों कहै । सुनहि न पुब अब्ब कर्थ || उतकंठ बधै मन उल्लौं । रहहि नींद आवै सुनते ॥१०६ | द्विज, द्विजी को उत्तर देते हुए योगिनिपुर और अजमेर नरेश ( पृथ्वीराज ) के शौर्य का वर्णन करता है (छं० ११०-११) । यह कथा कहतेसुनते रात्रि व्यतीत हो जाती और द्विज द्वारा कथित, श्रवणों को सुखद, यह कथा द्विज समझतर जाती है : सुनत कथा अछिवृत्तरी । गइ रस विहाई ।। दुज्ज कयौ दुजि संभल्यौ । जिहि सुख श्रवन सुहाय ।।११२, प्रात:काल यह द्विज रूपी शुक योगिनिपुर चल दिया : होत प्रति तब पठन तजि । थाइ हिंडोरन अाइ' ।। १. आचार्य द्विवेदी जी को { हिंदी साहित्य का श्रादिकाल, पृ० ६५ पर) कथन है कि यह दुज दुजी को सँभलने के लिये कहता है । परन्तु मेरा अनुमान है कि संभल्यौ' क्रिया यहाँ पर हिंदी की न होकर राजस्थानी की है, जिसका अर्थ होता है ‘स्मरण करना, समझना', 'सुनना' आदि। इसी अर्थ मैं वैतिकार पृथ्वीराज ने इस का प्रयोग कई स्थलों पर किया है : साँभलि अनुराग थयौ मनि स्यामा, वर प्रापति वच्छती बरः ।। हरि शु भणि अपनी जिका हरि, हरि तिरिया बन्दै गरि है ।।२६,