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( १६२ ) परन्तु फिर रानी को रुष्ट देखकर अपने को एक रात्रि के लिये संयोगिता के शयनागार में पहुँचाने के लिये कहता है (छं० १५ }। सौत-बैर के होते हुए भी ईच्छिनी संयोगिता से कपट-ति बढ़ाती हैं और शक को पिंजड़े सहित उसे दे देती हैं ( छं० २६-२८ और ४७ }। सरला संयोगिता शक को अपने शयनागार में ले जाती है और वहाँ रहता हुआ वह शुक संयोगिता के हाव-भाव, शारीरिक सौन्दर्य, रति-क्रीड़ा आदि सभी कुछ तो देखता है । ॐ० ६७-६६ )। पृथ्वीराज राठौर ने कृष्ण और रुक्मिणी की रति-वर्णन का प्रसंग दी न सु किहि देवि दु’ि और ‘अदिठ अलत किम कहण अवै' कह कर टाल दिया, परन्तु इस वर्णन-हेतु ही तो रासोकार ने शुक का मिस गढ़ा था फिर उक्त विवरण वह क्यों न प्रस्तुत करता है । कई दिवस पश्चात् जब शुक ईच्छिनी के पास लौट आया तो रानी ने स्वभावतः ही संयोगिता का रति-रास पूछ।' छं० १ ३-१ ) और उस धृष्ट शुक ने उस गुप्त प्रकरण का उद्घाटन ईच्छिनी तथा उसकी सखियों के आगे करना प्रारम्भ कर दिया : जो रस रसनन अनुदिनह । अधर दुराई दुराई ।। सो रस दुजे कन कन करयो । सप्रिन सुनाइ' सुनाई ।। सविन सुनाइ सुनाई। हिय सुचि सुचि लज मन्नह ।। सुथल विंथल थल कंपि । नैन नटकीय नन्न ।। जियन मरन भिल मेंन । कह्यौ अदभुत प्रिय रस !! ए रस अंतर भेद । प्रीय जानै त्रिंथ जौ रस ।। १०३ इच्छिनी द्वारा संयोगिता के ग्रच्छन्न अङ्गों के विषय में पूछने पर { छं० १०४) शुक ने निम्न वर्णन किया : क्रिसल थूल सिद असित | थान चव एक एक प्रति ।। पानि पाइ कटि कमल । सथल, रंजे सुच्छिम अति ।। कुच मंडल भुज मूल । नितं अंधा शुरुतं ।। कज हास बोक्रन । मांग उज्जल सा उतं ।। कुछ अञ कञ्च द्विग सद्धि तिल ! स्यामा अँग सब्ब गवन ।। घोडस सिंगार सारूव सजि । सांइ अँजे संजौगि तन ।। १०५, और तदुपरान्त उनके नख-शिख का विस्तृत परिचय देकर (छं० १०६-२६), दम्पति के पारस्परिक अाकर्षण और अनुराग की चर्चा की (छं० १२७-१०)