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जब वित्रिन चंद्रिका । कहै गुन नित चहुवानं }} जेस पराक्रम राज । तेइ बने दिन माने ।। राजकु श्ररि अब सुनै । तुबै उम्भरै रोम तन ।। फिरि पुच्छे ससिवृत्त । सदि एकंत मत्त गुन । जे जे सु पराक्रम राज किय । सोइ कहे वित्रिन समथ ।। श्रोतान रग लग्यौ उअर । तो वृत लिनौ सुनी सुकथ ॥१७८ ; युवावस्था में पदार्पण करने पर उसे कमि-पीड़ा सताने लगी ( छ. १७६ ); श्राप को प्राप्त करने की कामना से वह मनसा, वाचा, कर्मा से शिव-शिवा ( गौरी-शंकर ) की कठोर उपासना में रत हुई ( ॐ १८१-८३), जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने स्वप्न में उसे मनोवाञ्छित चर प्रदान कर दिया । ॐ० १८४ ) तथई रुक्मिणी की हि उसका हरण करने का सन्देश देकर मुझे आप के पास भेजा : हुअ' प्रसंन तिव सिवा । बोलि हूँ एठय तुझ्झ प्रति ।। इह बरनी तुम जोश | चंद जोसमा वन वृत | ज्यों रुकमिनि हरि देव । प्रीति अति बढ़ प्रेम भर ।। इह गुन ईस सरूप । नाम दुजराज भनिय चर ।। १८६ ; जयानक ने भी अपने ‘पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम्' में लिखा है कि दमघोर के पुत्र शिशुपाल को त्यागकर रुक्मिणी ने कृष्ण का वरण किया था बन्ने बलादाङ्गिरसाङ्गनाए | देनमेषधि कथं कलङ्क: । विहार्य देवी दमघोषलूनु | न रुक्मिणी किं विधुमलिलिङ्ग }} पष्ठसर्गः ; राजा ने हंस से फिर पूछा कि यदि राजकुमारी की यह मनोदशी थी तो उसके पिता ने पुरोहित भेजकर विवाह क्यों रचाया { छं० १८७ ) १ हँस ने उत्तर दिया कि यादव राज को जयचन्द्र से ही सम्बन्ध प्रिय लगा और उन्होंने उनके पास पुरोहित के हाथ श्रीफल तथा वस्त्राभूषणों सहिले लग्न भेज दी ( छं० १८८-८९ ) ; जयचन्द्र ने पुरोहित से यह जानकर कि विवाह का मूहूर्त पास ही है अपनी चतुरंगिणी सेना सजाकर, अगणित द्रव्य सहित, उत्साहपूर्वक देवगिरि के लिये प्रस्थान कर दिया है ( छं० १६०-६२ ), उन की दस लाख सेना विवाहोत्सव के उत्साह में स्थान-स्थान पर ठहरती आगे बढ़ रही है ( छ, १६३-६४); हे दिल्लीश्वर ! कलियुग में कीर्ति अमर करने के लिये आप भी चढ़ चलिये, देवगिरि की सुग्धा आप ही के योग्य है,