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  • अतःई यतः हैं; हे सुत्र, तेर; ल-; च जाय, ५ र अौर पर योद्धा हो, युद्ध में ॐ देरी समानता न कर सके। ( छं० १९६४६८ } } यह कहकर इमरूधर अन्तद्धन हो ३ ( छ. १९६२-६६ } } ।

चंद ने कहा कि है संझरेश चौहान् । दिल्ली लौटने के कुछ मास छ दिन बाद उक्ल झन्छ। को दुघरव प्राप्त हो गया है। इक सास पट दिवस बर | रहि नृप दिल्ली थान !! सु वर वीर गुन्न उपजिय } सुनि संभरि बहुअन ।। २००५ ; शिव-पार्वती द्वारा सिर पर हाथ रखने के कारण पुरः सामर्थ्यवान् अत्ताताई अपने शरीर पर राख मले, शृङ्गी बाजा और तीश त्रिशूल लिये रहता था; यु-भूमि में उसकी लतकार के साथ किलकिलाती हुई योगिनी साथ-साथ चलती थी : सिव सिवाह सिर हथ्थे । भयौ झर पर समथ्थ है ।। से विधि राज प्रदरिये । सात स्वामित अथ्थ ले ।। वपु विभूति असरै । हिंदिर संग्रह धरै उर ।। त्रिजट कथं कंठरिय । तेष्व तिरसूल धरै कर || कलकंत बार किलकत क्रमि । जुनिरनि सह सथै फिरै ।। चौरभि नंद चहुयान चित । अत्तताइ नामह सरै ।। २००८ कविचंद द्वारा कही गई यह वात पृथ्वीराज ने सुनी तथा अत्ताताई का शौर्य युद्ध में देखकर, उले वीर-कार्य का कुती माना : इह बत्ती कविचंद कहि । सुनिय राज प्रथिराज ।। जुद्ध पराक्रम में कें । मंन्यौ सब क्रत काज || २०१३ जहाँ तक शौर्य का प्रश्न है, भीष्म ने शिखंडी को ‘रथसत्तम भी कहा है । अत्ताताई की कथा का विन्यास रास में शिथिल है । एक ही बात को पहले कहकर दूसरी बार फिर उसे विस्तारपूर्वक दोहराया गया है तथा कहीं-कहीं परस्पर विरोधी बातें भी आ गई हैं, परन्तु यह शिथिलत; याद्यपान्त रास की एक विशेषता है ।।

व्यतीत होती हुई ऋतु की कॅठोरता विस्मृद करने के उद्देश्य से वैदिककालीन अयि द्वारा पूर्ण समारोह के साथ नवीन ऋतु का अभिनन्दन कालान्तर में साहित्य में नि:शेष ऋतुश्नों का एक साथ एक स्थान पर चित्रण करने के लिये प्रेरक रहा हो । 'ऋक्वेद, अथर्ववेद', 'वाजसनेयी-संहिता', महाभरत' और. “मनुस्मृति में ऋतुओं को व्यक्तित्व प्रदान करके उनका । ऋचाअों द्वारा यजन तथा बत्ति प्रदान करने के उदाहरण अलभ्य नहीं हैं।