पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/२१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(२०३)

________________

( २०३ ) यज्ञ की कथा के रचे जाने का उल्लेख करते हुए बताया है कि कर्नल टॉड झौर ओझा जी राव लुम्भा के शिलालेख के आधार पर चौहानों को अपने को वस-रात्र कहता हुझा मानते हैं। अस्तु उनके अनुसार वह बन्स-गोत्र ही चौहान को अग्नि-वंश से सम्बन्धित करता हैं । अपने निष्कर्म के प्रमाण में शर्मा जी कहते हैं---‘हिंदुओं के यहाँ ६ बड़े गौत्र-प्रबर्तक ऋषिं हो गये हैं....विश्वामित्र, भृगु, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य ! इनमें से भू-रोत्र । ७ शाखा १ वत्स, विद, या%िपेण, यास्क, मित्रयुव, वैन्य और शौनक ) । गोत्रप्रवर निबन्ध कदम्बम्, भृगु काण्डम्, पृ० २३-२४] में से एक वत्स शाखा है । जब वत्स गोत्र के अादि पुरुष महर्षि भृगु बताये गये हैं तब यह देखना चाहिये कि भृगु किस वंश के हैं । मनुस्मृति में लिखा है--इदमूचुर्महात्मानं अनलं प्रभवं भृ’ (५-१) । इसमें भृगु का विशेष अनल-प्रभव स्पष्ट है । इस सम्बन्ध में केवल मनुस्मृति ही नहीं श्रुति भी साक्षी देती है-*तस्य बद्र तसः प्रथमं देदीप्यते तदसावादियोऽभवत् । यद्वीतीयमासीद् भृगुः ।' अर्थात्-उसकी शक्ति (तस= वीर्य) से जो पहला प्रकाश (अग्नि हुआ, वह सूर्य बन गया और जो दूसरा हुआ उसीसे भृगु हुअा ]। इसी प्रमाण से भृगु को नल-प्रभव कहा गया है । इस प्रकार भृगु अग्निवंशी हुए और भृगुवंशी हुए वत्स ! वत्स गोत्री हैं चौहान । अतएव चौहानों को अग्निवंशी कहलाने में कोई तात्विक आपत्ति नहीं दिखाई देती ।। | ईशावास्योपनिषद' में मरणोन्मुख उपासक मार्ग की याचना करते हुए कहता है कि हे अग्ने ! हमें कर्म फलभोग के लिये सन्मार्ग से ले चले ! हे देव ! तु समस्त ज्ञान और कर्मों को जानने वाला है। हमारे परिपूर्ण पापों को नष्ट कर { हम तेरे लिये अनेकों नमस्कार करते हैं... अग्ने नय सुपथ राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।। युध्यमजुहुराणमेनो भूविष्ठां ते नमउकिं विधेम ।। १८ १. शिलालेख सं० १३७७ वि० अचलेश्वर का मन्दिर, आबू ; यह शिलालेख चौहान के पूर्व पुरुष को वत्सगोत्री मात्र ही नहीं कहती बरन् उसे चन्द्रवंशी मी बताता है। इससे यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि शिलालेखों में भी परस्पर विधी प्रमाण पाये जाते हैं । २. चौहानों के अग्निवंशी कहलाने का अाधार, राजस्थानी, भाग ३,