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से बड़ी प्रीति हो गई थी। यह ठीक है कि विज्ञान ऐसी घटनाओं की हँसी उड़ाता है---हथिनी के वीर्य खा लेने से उसके गर्भ नहीं स्थिर हो सकता और वह भी हाथी का वीर्य न होकर मनुष्य का था ; किंर यदि गर्भ स्थिर भी हो सके तो हाथी और मनुष्य के मेल से किसी विचित्र जंतु के जन्म की कल्पना ही संभव है न कि मनुष्य की-----परन्तु हिन्दू पुराणों में ऐसी कपोल कल्पित थाओं की कमी नहीं है। उदाहरणार्थ घड़े में शुक्र रखने से कंभज ऋषि का जन्म, कबूतर के वेश में आये हुए अरिन पर शिव के वीर्य डालने पर कार्तिकेय का जन्म ( शिव पुराण ) और द्रुमिल नामक गोप की स्त्री कलावती के नारद का वीर्य खा लेने पर स्वयं नारद का जन्म ( नारद पुराण ) इत्यादि दन्तकथायें ऋषि पालकाव्य के जन्म से कहीं बढ़कर आश्चर्यजनक हैं। रासो-सार’ की बात ठीक मान लेने से कि-रेवा तट पर मिलने वाले हीथी, मरकर हाथी को जन्म पाये हुए मृलकाव्य ऋषि और श्रापित रंभा रूपी हथिनी की संतान थे, नकि पिछले कबिच ३ के अनुसार ऐरावत और उमा द्वारा प्रदान की हुई हथिनी के-हाथिर्वो की जन्म विषयक एक ही स्थान पर दो कथायें हुई जाती हैं जो अनुचित है । रास-सार के लेखकों ने कथानक के उपकथानक के क्षेपक को क्षेपक न मानकर उसी उपकथानक में भूल से सम्मिलित कर दिया है। रासो-सार, पृष्ठ ६६ में लिखा है कि इस प्रकार ऋषि के शप के कारण ऐरावत अपनी आकाश-गामिनी शक्ति से वंचित होकर अंग देश के पूर्व प्रदेश में स्थित गहन वन में जहाँ कि नाना प्रकार के कमल और कुमोदिनी समूह से आच्छादित निर्मल जलमय अच्छे अच्छे सुवृहत सरोवर शोभायमान हैं, अानंद से केलि क्रीड़ा करता हुआ समय व्यतीत करने ले । उसी वन में पालकाव्य नामक एक ऋषिं रहते थे । पालकाब्य और ऐरावत में ऐसी घनी प्रीति हो गई कि वे एक दूसरे को देखे बिना “पल भर भी न रहते थे। पिछले कवित्त ६ की पंक्ति-श्रापित गज कौ जूथ करत क्रीड़ा निसि वासर--का अर्थ है कि श्राप घाये हुए राजों का थूथ वहाँ क्रीड़ा किया करता था; अतएव केवल ऐरावत का वहाँ क्रीड़ा करना, लिखा जाना उचित नहीं है। एक स्थान पर रहते-रहते पालकाव्य और हाथियों में बड़ी प्रीति हो गई थी, दैवयोग से राजा रोमपाद हार्थियों को पकड़ कर ले गया और पालकाव्य की विरह के कारण उन हाथियों के शरीर निर्बल होने लगे । राजा रोमपाद को यह देखकर चिंता हुई होगी कि आखिर इस दुर्बलता का