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( १५ ) रू० ११--हे राजन् ! सुनिये-(रेवातट पर विस्तृत) वन को हाथियों के यूथों ने इमणीक बना दिया है ।रेवातट पर चारों ओर वीर(पराक्रम) गजदंतों (हाथियों) के समूह हैं । वहाँ अप मार्ग रोककर कौतूहल वद्धक मृगया का आनंद लें (और फिर) दिल्ली के मार्ग में. (दिल्ली से देवगिरि जाने वाले मार्ग में) सिंह भी मिलते हैं जिनका श्राप शिकार खेतसकते हैं । हे नृपति, जलाशयों, पहाड़ों और चारों ओर आप (अत्यधिक) परिमाण में कस्तूरी मृग, पक्षी और कबूतर देखेंगे, यह सब तो है ही। परन्तु दक्षिर की सुरभि तो वर्णनातीत है या (दक्षिण के मार्ग का वर्णन नहीं किया जा सकता) ।” शब्दार्थ---रू०१०–तार्थ=इसीलिये (यही कारण था)। तिन=उन । मुनि-यहाँ मुनि पालकाव्य की ओर संकेत है । करिन स = हाथियों से । पिथ्थ <पृथ्वीराज । सम= से । सकल = सबै । मंडि-कहा । बिरतंत<सं०वृत्तांत । रू० ११- सुनहि=सुने । बिपने< सं० विपिन=वन । रवनीथर सं० रमणीक । करिय (अवधी)= कर दिया। राजदंत= बड़े दाँत वाले, हाथी । चन-चार । रथ< सं० रथ्य= मार्ग, रास्ता ! चवन रथ-चारों ओर। अर्घटक अचंभ = कौतुहल वद्धक आखेट (शिकार)। पंथ= मार्ग । पाचर <पौर =दरवाजा । (पावर का अर्थ बाड़ा भी है, जैसे पावर रोएकर) । रुकिं=रोककर । पंथ पावर रुकि=मार्ग का द्वार रोककर अर्थात् मार्ग को बंद करके । पिल्लौ=खेलो । ब<बाट=रास्ता । जूहू = यूथ । जल जूहू == जल का यूथ अर्थात् जलाशय । कुह<फा० ४५ = पर्वत । परबत<सं० पावित कबूतर प्रन्तु योर्नले महोदय इसका अर्थ जंगली जानवर लगाते हैं ] } चहुअन=(१) चारों ओर (२) चौहान पृथ्वीराज । मन=परिमाण; मानिये, विश्वास कीजिये । देषे = देखा है, देखिये । दच्छिन<सं० दक्षिण सुरह= सुरही<सं० सुरभि दक्ष कन्या, कश्यप पत्नी, पशु तथा रुद्रों की माता बहुधा ऐक मातृका समझी जाने वाली पौराणिक कामधेनु । दच्छिन सुरह= दक्षिणी गाय । परन्तु ह्योनले महोदय ‘सुरह’ को ‘स्वर' का विकृत रूप मानते हैं जो भ्रमः जनित है ] । सुरह गायें बद्रिकाश्रम की और उत्तराखंड में पाई। जाती हैं। कालिदास ने वायुवेग से रगड़ रख़ाकर देवदार की डालों का सुरह गाय की पूछे जलाकर दावाग्नि पैदा करने का वर्णन किया है--- तं चेद्वायौ सरति सरलस्कन्ध संघट्टजन्सी बाधेतोल्काक्षपितचमरी बालभारो देवाग्निः ||६४}} मेघदूत । सुरह का अर्थ (सु+राह) सुन्दर मार्ग भी कुछ विद्वान करते हैं । यद्यपि इस संधि में अशुद्धि स्पष्ट है परन्तु रासो में ऐसी स्वच्छन्दता आश्चर्यजनक