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Asiatic Journa, Vol. XXy, p, 106 में वर्णित परिहार जाति का नहींहै वरन् कोई दूसरा बीर है जो सोलंको या चौहान वंश का था । उरि< उलर = झपटना | दुहें बाँह दोनों सिरों पर । उपभेति रुष = क्रोधित उपस्थित थे। रू० ६०–छद्वि-छठवीं । घटियघड़ी। कंध-कंधे । कड्=िकाटना ! कुरंग == हरिंण । लोह सों लौह जु रुझे-लोहे से लोहा रुकता रहा। कंक = तलवार की मूठ । पक्के- रबरकती थी। चित्त में केक घरके=चित्त में तलवार की मूठ लटकती थी अर्थात् ध्यान तलवार की नूठ पर था । भीर=दल के दल। भंजर=मंजन करने वाला । तरन तिरच्छो लग = जब उसने तिरछे पक्ष से लड़ना प्रारंभ किया अर्थात् जब उसने एक पक्ष से वार किया । जेम' === जिस प्रकार । संका< सं० शंका ( शंकित होकर या लज्जित होकर ) | सुबर == स्वामी, पति । उदौ<उदय ( सूर्योदय ) | जानि=जानकर । जिमि= जैसे ।। भग्गयौ = भाग जाती है। नोट-रू० ६०-की अंतिम दो पंक्तियों का अर्थ ह्योर्नले महोदय ने इस प्रकार किया है «Pundir seeing the staying and fighting multitude, drew aside from fighting, just as a newly married woman, from shyness towards her husband, makes off on noticing the sun's rising," चंद पुंडीर ने छक पाकर थवन सेना पर तिरछे रुख से इस प्रकार धावा किया कि उनके पैर उखड़ गये ।” रासो-सार, पृ० १०१ ।। छंद भुजंग मिले चाइ चहुआं सा चाँपि गोरी । स्वयं पंच कोरी निसांनं अहोरी ।। बजे आवई संभरे अद्ध कोस । तिनं अग्ग नीसांन सिलि अद्भकोस ॥ छं० ७३ । बरं बंबरं चौंर माहीति साई । हुले छत्र पीतं वले यार धाई ।। बुलै सुर हक्के हहक्के प्रचारं । घले बथ्थ दोऊ धर जा अपार ।। ॐ० ७४ 3. (१) ना०-धने (२) ना०-दहक्क (३) ५०-- अपार ।