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( १०४ ) not dispute (the matter, ) but accept in me a resplendent wife," i और रू० ७६ का अर्थ उन्होंने इस प्रकार किया है.--- “The head of the kinsman of Rama now Isa with his hand desired to take, like a man who has become a beggar corets a bone whenever he sees it," p. 49, कवित जंघारौ जोगी जुपि, कयौ कट्टारी ।। फस प्रानि होगी त्रिसूल, पृष्षर अधिकारौ ।। जटत बान सिंग विभूत, हर बर हर सारौ । सबर ६ बद्दयौ, विषम दग्गे धन झारौ । असिन सदिट्ट भिज्ञ पत्ति में, लिय सिर चंद अम्रित अमर । मंडलीक राम रावत भिरत, न भौ बार इत्तौ समर । छं० ११३ । रू०७३। भावार्थ----रू० ७८-जंघार (या=जंघारा), योगियों में योगीन्द्र (शिवा) सदृश दिखाई पड़ा; ( उसके एक हाथ में ) खुली हुई कटार थी, एक हाथ में फरशY, ( पीठपर ) ऊँचा त्रिशूल और बाधंवर था । सर पर जटायों का जूट बाँधे, बाण तथा सिंगी वाजा लिये, और ( शरीर में ) भभूत मले हुए वह स्वं नाशक शिव सइश दिखाई पड़ता था। उसने शाबर मंत्रों का उच्चारण करके विषम मद में भरने वाली वायु फैला दी । अब बीर गति प्राप्त हो जाने पर वह (स्वर्गलोक में) अपनी ( योगियों की) पंक्ति में देखा जा सकता है। उसके सिर पर अमरत्व प्रदान करने वाला अमृत से युक्त चंद्रमा सुशोभित है । मंडलेश्वर राम और रावण के युद्ध के बाद संसार में ऐसा युद्ध अब तक न हुआ था। या–राम रावत के युद्ध से अब तक समर भूमि में ऐसी वीरता न देखी गई थी---ह्योर्नले ] । शब्दार्थ----०७--जगी जुगिंदयोगियों में योगीन्द्र सदृश } ऋढ्यौ कट्टारौकटार काढ़े हुए। फरस-फरशा । पानि<<सं० पाणि = हाथ ! तुगी <तुंग ऊँचा । त्रिसूल<सं० त्रिशूल । अर= जिरह बदतर, यहाँ बाधंबर) । अधिकारी-अधिकार में (अर्थात् सुसज्जित) | जटत-जटाओं को जूड़ा । बांनाए । सिंगी-सींग का वाद्य विशेष । बिभूत = भभूत है हर बर == श्रेष्ठ । (१) ना०--परस (२) ना०-मथ्षर (३) नाp-विषम मद्गंधन झारौ (४) मो०-वन; साo-रात ।।