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१ ---रेवा तट समय की कथा

जब) देवगिरि को जीतकर चाइराय दिल्ली मया तव) कवियों ने महाराज का कीर्सिगान किया (रू. १) | फिर सान्तनाथ एवज २८ चामंडराय दाहिम ने कह? कि जिस हाथी के ललाट पर शिव जी ने तिलक कर तथा जिसका ऐरावत नामकरण कर इन्द्र के सवारी के लिये दिया था और जिसको उस ने एक हथिनी प्रदान की थी उसी की औलाद रेया तट पर फैल बाई है। वहाँ चारों प्रकार के हाथी पाये जाते हैं अतएव अथ रेटत पर उनका शिकार खेलने चलें (रू. २, ३, ४.)। नरपति ने तब चंद कवि से पूछा कि देवताओं के ये वाहन पृथ्वी पर किस प्रकार अाराये (रू० ४) १ (चंद ने उत्तर दिया कि) हिमालय के समीप एक बड़ा भारी वैट का दृच था, (एक दिन विचरते हुए) हाथी ने उसकी शाखायें तोड़ी और फिर मदांध हो दीर्वतपा का आराम उजाड़ डाला । ऋषि ने यह देखकर आप दे दिया और हाथी की अाकाशमी गति क्षीण हो गई तब मानों ने उसे अपनी सवारी बनाया (रू० ५) । अंगदेश के घने वन खंड के लोहिताद्ध सरोवर में आर्पित गजों का यूथ निशिवसिर क्रीड़ा किया करता था। उसी वन में पालतकाव्य ऋषि रहते थे। उनसे और हाथियों से परस्पर बड़ी प्रीति हो गई थी । एक दिन उस वन में राजा रोनबाद शिकार खेलने यो शोर हाथियों को पकड़कर चंपापुरी ले गय! (०० ६) । पालकाब्य की विरह से हाथियों के शरीर की हो गये तर मुनि ने कर उनकी सुश्रूषा की (रू० ७) और कोंपल, पराग, पत्र, छाल, डाल अादि खिलाकर उन्हें पुनः स्थूल बना दिया (रू० ८) । एक ब्रह्मर्षि को तपस्या करते देखकर इंद्र डरा और उसने मुनि को छलने के लिये रंभा को भेजा । 'तपस्वी ने रंभा को हथिनी होने का श्राप दिया ! सोते समय एक यति का वीर्यपात हो गया और कर्मबंधन के अनुसार वह हथिनीं वहाँ आकर उस ची को वो गई जिससे मालकाव्य सुनि पैदा हुए। हे नृप पिथ्थ ! इसीलिये मुनि को हाथियों से अत्यंत प्रीति थी' (रू० ६, १०) । (तव चामंडराय ने कहा कि) *हे राजन , वातट पर बड़े दाँतों वाले हाथियों के झुंड तो हैं ही पर