पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/७९

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गंवाया भ्रलक्ष वसन्न मसन, लच्छी उमा दो बरं ।।। संग्वं भूत कपाले माल असितं, बैजति माता हरी ।। में मध्य विभूति भूर्तिक शुन्, विभूति मा क्रमं ।। पाएँ विहरति मुक्ति अएन बिर्य, दीयं वरं देवयं !! S८, स० १ इन स्तुतियों के बाद कवि ने अपनी रचना की वण्र्य-वस्तु इस प्रकार निर्दिष्ट कर दी है---"क्षत्रिय-कुल में हुण्ढा नामक एक श्रेष्ठ राक्षस हुआ। उसकी ज्योति से पृथ्वीराज का जन्म हुआ, अस्थियों से शरमी सामंत उत्पन्न हुए, जिह्वा की ज्योति से केविचन्द हुआ और रूप से संयोगिता पैदा हुई। एक शरीर से जन्म प्राप्त करके सब क्रम से एक शरीर में ही समा गये । यथानुसार जैसे कुछ वे उत्पन्न हुए तथा राजा को भोग और योग की प्राप्ति हुई, उस शत्रु-दल के दलन करने वाले वज्राङ्ग-वाहू की कीर्ति चंद ने कही है : दानव कुल छत्रीय । नाम ढूंढा रष्यस बर।। तिहिं सु जोत प्रथिराज । सूर सामंत अस्ति भर ।। जीह जति कविचंद } रूप संजोगि भोगि श्रम ।। इके दीह ऊपन्न । इक्क दी है समय क्रम ! जथ कथ्ध होइ निर्म । जोग भौग राजन लहिय ।। वज्रङ्ग बाहु अरि दल मलन् । तालु कित्ति चंदई कहिय ।। ६६, स० १ ( ६ ) सज्जन और दुर्जनों के अनादि अस्तित्व ने काव्य में भी उनकी हुति-निन्दा केरना विधेश बनाया होगा यही कारण है भारतीय महाक.व्यों ॐ आदि में इनके प्रसंग का ! रामायण और महाभारत जैसे विश्व-वश्रुत कायों में इनके बर्णन की अनुपस्थिति किञ्चित् विचार में डालने वाली हैं। तथा संस्कृत-पण्डितों द्वारा इन्हें महाकाय ३ मानकर क्रमश: अादिकाव्य र इतिहास कहकर इस प्रश्न से मुक्ति पाने का यह बहुत समाधान नहीं करता क्योंकि संस्कृत के अन्य कई श्रेष्ठ कृश्यों में उनके महाकाव्य न होने पर भी इनकी यथेष्टे चर्चा हुई है। भारत की इन दो विशिष्ट रचनाओं को छोड़कर ६०० ई० के आसपास होनेवाले महाकवि भारवि ने अपने ‘किरातार्जुनीयम्' नामक महाकाव्य (१) बसन्न मसर्न' का अर्थ ‘मसाने का वासो’ भी सम्भव हैं; वैसे इसके दूसरे पाठ "बक्षिससन ने अभीष्ट है ‘वास को स्थान' जो यहाँ अधिक अभिप्रेत है ।। (२) या एक ही दिन छपन्न होकर एक ही दिन क्रम में स गये ।