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पूरी तरह खप जाता है तथा संयोगिता द्वार। उनकी मूर्ति को तीन बार वरमाला पहनाने की सूचना से पृथ्वीराज का प्रेम और उत्साह जाट कर और 'चलन नरिंद कबिंद पिथ, पुर कनवज मत भंडि’ से उनक कान्यकुब्ज़ गमन का निश्चयू दिखाकर अगा। पृष्ठभूमि भलीभाँति प्रस्तुत कर दी गई है। शुक द्वारा संयोगिता के रूपगुण वर्गन के प्रभाव से पृथ्वीराज को व्यथित दिखाकर तथा ग्रीष्म में दलपंग का दरबार दिखाने के अनुरोध से सुक बरनन संजोरा गन । उर लागे छुटि वान ।।। पिन त्रिन सल्लै बार पर । न ल है बेद जिनान ।।१ भय औतान नरिंद मन । पुन्छै फिरि कविरज ।।। दिष्प्राबै दल' पंगुरौ । धर ग्रीषम कनवज्ज १२ रासोकार समय इकसठ की कन्नौज गमन, संयोगिता हरण और युद्ध में पृथ्वीराज के कुशलता पूर्वक दिल्ली पहुँचने की कहानी कह जाता है । समय बासठ विलसन राज करै नव नित्तिय की प्रारम्भिक सूचना चौहान नरेश के सखोपभोग का परिचय देकर, पूर्व कथा-सूत्र से अथित हो, इच्छिनी के सपत्नीक विरोध तथा पृथ्वीराज द्वारा उसके मान-मोचन में समाप्त हो जाती है । । समय तिरसठ कन्नौज-युद्ध में मारे गये सामंतों पर पृथ्वीराज के दु:ख प्रकाश से प्रारम्भ होता है--- जिन बिन नप रहते न छिन । ते भट कटि कनवज्ज ।। | उर उप्पर रत रहै। छडै न चित हित रज्ज ।।१ और भविष्य में शौरी द्वारा उनके अंधे किये जाने की भूमिका, श्राप-फलित होने के भारतीय विश्रास के कारण, दिल्लीश्वर को ऋत्रि-शाप दिलाकर पुष्ट की गई है। ते भट कटि कनवज्ञ के उल्लेख द्वारा समय इकसठ के प्रसंग से प्रस्तुत समय जोड़ने की चेष्ट्री की गई है। इस समय के अन्त में श्राप पाने के उपरान्त पृथ्वीराज के संयोगिता के महल में जाकर विश्वासी द्वारपालों को नियुक्त करके रस रंग में डूबने का समाचार गैर हिल राजन भयौ । साहित' संजोय बाम ।। पोरि ने रच्यो थोरिया । जे इतबारी धाम ||३०४, आगामी छाँछठवें समय में रति-विस्मृत होकर, राज-कार्य से उनकी उपेक्षा का शिलान्यास कर चलता है ।