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आत्म-कथा : भाग २


आपके सिरपर अपने ही देशकी पगड़ी शोभा देती है। आप यदि अंग्रेजी टोपी लगावेंगे तो लोग 'वेटर' समझेंगे।"

इन वचनोंमें दुनियावी समझदारी थी, देशाभिमान था, और कुछ संकुचितता भी थी। समझदारी तो स्पष्ट ही है। देशाभिमानके बिना पगड़ी पहननेका आग्रह नहीं हो सकता था। संकुचितताके बिना 'वेटर' की उपमा न सूझती। गिरमिटिया भारतीयोंमें हिंदू, मुसलमान और ईसाई तीन विभाग थे। जो गिरमिटिया ईसाई हो गये, उनकी संतति ईसाई थी। १८९३ ई॰ में भी उनकी संख्या बड़ी थी। वे सब अंग्रेजी लिबासमें रहते। उनका अच्छा हिस्सा होटलमें नौकरी करके जीविका उपार्जन करता। इसी समुदायको लक्ष्य करके अंग्रेजी टोपीपर अब्दुल्ला सेठने यह टीका की थी। उसके अंदर वह भाव था कि होटलमें 'वेटर' बनकर रहना हलका काम है। आज भी यह विश्वास बहुतोंके मनमें कायम है।

कुल मिलाकर अब्दुल्ला सेठकी बात मुझे अच्छी मालूम हुई। मैंने पगड़ी वाली घटनापर पगड़ीका तथा अपने पक्षका समर्थन अखबारोंमें किया। अखबारोंमें उसपर खूब चर्चा चली। 'अनवेलकम विजिटर'—अनचाहा अतिथि— के नामसे मेरा नाम अखबारोंमें आया, और तीन ही चार दिनके अंदर अनायास ही दक्षिण अफ्रीकामें मेरी ख्याति हो गई। किसीने मेरा पक्ष-समर्थन किया, किसीने मेरी गुस्ताखीकी भर पेट निंदा की।

मेरी पगड़ी तो लगभग अंततक कायम रही। वह कब उतरी, यह बात हमें अंतिम भागमें मालूम होगी।

प्रिटोरिया जाते हुए

डरबनमें रहनेवाले ईसाई भारतीयोंके संपर्कमें भी मैं तुरंत आ गया। वहांकी अदालतके दुभाषिया श्री पॉल रोमन कैथोलिक थे। उनसे परिचय किया और प्रोटेस्टेंट मिशनके शिक्षक स्वर्गीय श्री सुभान गाडफ्रे से भी मुलाकात की। उन्हींके पुत्र जेम्स गाडफ्रे पिछले साल यहांके दक्षिण अफ्रीकाके भारतीय प्रतिनिधि-