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पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/१७५

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अध्याय २० : बालासुंदरम्


था, गिरमिट रद कर दे, दुसरे के नाम पर चढ़ा दे अथवा मालिक खुद उसे छोड़ने के लिए तैयार हो जाय । मालिक से मिला और उसने कहा--- " मैं आपको सजा कराना नहीं चाहता । अआप जालते हैं कि उसे सख्त चोट पहुंची है। आप उसको गिरमिट दूसरे के नाम चढ़ाने को तैयार होते हों तो मुझे संतोष हो जायगा । "मालिक भी यही चाहता था। फिर मैं उस रक्षक अफसर से मिला । उसने भी रजामंदी तो जाहिर की; पर इस शर्त पर कि मैं वालासुंद के लिए नया मालिक ढूंढ दुं ।

अब मुझे ना अंग्रेज मालिक खोजना था । भारतीय लोग गिरटियों को नहीं रख सकते थे। अभी थोड़े ही अंग्रेजों से मेरी जान-पहचान हो पाई थी । फिर भी एक ही जाकर मिला। उसने मुझपर मेहरबानी करके बालासुंदरम् को रखना मंजूर कर लिया । मैंने कृतज्ञता प्रदर्शित की। मजिस्ट्रेट मालिक को अपराधी करार दिया और यह वह नोट कर ली कि मुजरिम ने वालासुंद की गिरमिट दुसरे के काम पर चढ़ा देना स्वीकार किया है ।

बालसुनदरम् मामले की बात गिरमिटियों में चारों ओर फैला दी और मैं उनके बंधु के नाम से प्रसिद्ध हो गया । मुझे यह संबंध प्रिय हुआ । फलतः मेरे दफ्तरों गिरमिटियों की बाढ़ आने लगा और मुझे उनके सुख-दुःख जान की बड़ी सुविधा मिल गई ।

बालासुंदरम् के मामले की ध्वनि के मद्रास तक जा पहुंची। उस इलाके जिन-जिन जगहों मैं लोग नेटाल क गिरमिटया गये उन्हें गिरमिटियों ने इस बातक परिचय कराया। मामला कोई इतना महूत्त्वपूर्ण न था; फिर भी लोगों को यह बात नई मालूम हुई कि उनके लिए कोई सार्वजनिक कार्यकर्ता तैयार हो गया ! इस बातसे उन्हें तसल्ली और उत्साह मिला ।

मैंने लिखा है कि बालासुंदरम् अपना फैंटा उतारकर उसे अपने हाथों रखकर मेरे सामने आया था। इस दृश्य में बड़ा ही करु-स भरा हुआ है। यह हमें नीचा दिखाने वाली बात है। मेरी पगड़ी उतारने की घटना पाठक को मालूम ही है । कोई भी गिरमिटिया तथा दूर नवापत हिंदुस्तानी किसी गोरे कै यहां जाता तो उसके सम्मान के लिए पगड़ी उतार लेता---फिर टोपी हो, या पगड़ी, अथवा फैंटा हो । दोनों हाथों से काम करना काफी न था । बाला