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अध्याय ७ : ब्रह्मचर्य---१


परंतु मि० हिल्स के द्वारा किये गये उनके विरोध का नया अंत:साधन----संयम-के समर्थन का असर मेरे दिलपर बहुत हुआ और अनुभव में बह चिरस्थायी हो गया । इस कारण प्रजोत्पत्ति की अनावश्यकता जंचते ही संयम-पालन के लिए उद्योग प्रारंभ हुआ ।

संयम-पालन्द में कठिनाइयां बेहद थीं । अलग-अलग चारपाइयां रक्खीं । इधर मैं रात को थककर सोने की कोशिश करने लगा । इन सारे प्रयत्नों का विशेष परिणाम उसी समय तो न दिखाई दिया; पर जव में भूतकाल की ओर आंख उठाकर देखता हूं तो जान पड़ता है कि इन सारे प्रयत्नों ने मुझे अंतिम बल प्रदान किया है।

अंतिम निश्चय तो ठेठ १९०३ ई० में ही कर सका । उस समय सत्याग्रह का श्रीगणेश नहीं हुआ था । उसका स्वापनत्‍क में मुझे खयाल न था । बोअरयुद्ध के बाद नेटाल में ‘जुलू' बलवा हुआ । उस समय में जोहान्सबर्ग में वकालत करता था; पर मनने कहा कि इस समय बलवे में मुझे अपनी सेवा नेटाल-सरकार को अर्पित करनी चाहिए। तदनुसार मैंने अर्पित की भी और वह स्वीकृत भी हुई । उसका वर्णन अब आगे आवेगा; परंतु इस सेवा के सिलसिले से मेरे मन में तीव्र विचार उत्पन्न हुए । अपने स्वभाव के अनुसार अपने साथियों से मैंने उसकी चर्चा की । मुझे जंचा किं संतानोत्पत्ति और संतान-पालन लोक-सेवा के विरोधक हैं । इस ‘बलवे' के काम, में शरीक होने के लिए मुझे अपना जोहानसबर्ग वाला घर तितर-बितर करना पड़ा । टीमटाभ के साथ सजाये घर को और जुटाई हुई विविध सामग्री को अभी एक महीना भी न हुआ होगा कि मैंने उसे छोड़ दिया । पत्नी और बच्चों को फीनिक्स में रक्खा और मैं घायलों की शुश्रूषा करने वालों की टुकड़ी बनाकर चल निकला । इन कठिनाइयों का सामना करते हुए मैंने देखा कि यदि मुझे लोक-सेवा में ही लीन हो जाना है तो फिर पुत्रैषणा एवं अनैषणा को भी नमस्कार कर लेना चाहिए और वानप्रस्थ-धर्म का पालन करना चाहिए ।

‘बलवे' में मुझे डेढ़ महीने से ज्यादा न ठहरना पड़ा; परंतु ये छः सप्ताह मेरे जीवन का बहुत बेशकीमती समय था । व्रत का महत्त्व मैंने इस समय सबसे अधिक समझा । मैंने देखा कि व्रत बंधन नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का द्वार है । आज तक मेरे प्रयत्नों में अवश्यक सफलता नहीं मिलती थी; क्योंकि मुझमें निश्चय का अभाव था । मुझे अपनी शक्ति पर विश्वास न था । मुझे ईश्वर की कृपा