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अध्याय १४ : कारकुन और 'बेरा'

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कारकुन और 'बेरा'[१]

कांग्रेसके अधिवेशनको एक-दो दिनकी देर थी। मैंने निश्चय किया था कि कांग्रेसके दफ्तरमें यदि मेरी सेवा स्वीकार हो तो कुछ सेवा करके अनुभव प्राप्त करूं।

जिस दिन हम आये उसी दिन नहा-धोकर कांग्रेसके दफ्तरमें गया। श्री भूपेंद्रनाथ बसु और श्री घोषाल मंत्री थे। भूपेन बाबूके पास पहुंचकर कोई काम मांगा। उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा—

"मेरे पास तो कोई काम नहीं है-पर शायद मि॰ घोषाल तुमको कुछ बतावेंगे। उनसे मिलो।"

मैं घोषाल बाबूके पास गया। उन्होंने मुझे नीचे से ऊपरतक देखा। कुछ मुस्कराये और बोले-

"मेरे पास कारकूनका काम है-करोगे?"

मैंने उत्तर दिया"जरूर करूंगा। अपने बस-भर सब कुछ करनेके लिए मैं आपके पास आया हूँ।"

"नवयुवक, सच्चा सेवा-भाव इसको कहते हैं।"

कुछ स्वयंसेवक उनके पास खड़े थे। उनकी ओर मुखातिब होकर कहा—

"देखते हो, इस नवयुवकने क्या कहा?"

फिर मेरी ओर देखकर कहा-"तो लो, यह चिट्ठियोंका ढेर; और यह मेरे सामने पड़ी है कुरसी, उसे ले लो। देखते हो न, सैकड़ों आदमी मुझसे मिलने आया करते हैं। अब मैं उनसे मिलूं या ये लोग फालतू चिट्ठियां लिखा करते हैं इन्हें उत्तर दूं? मेरे पास ऐसे कारकुन नहीं कि जिससे मैं यह काम करा सकूं। इन चिट्ठियोंमें बहुतेरी तो फिजूल होंगी! पर तुम सबको पढ़


  1. अंग्रेजी 'बेअरर' शब्दका अपभ्रंश; खिदमतगार। कलकत्तामें घरके नौकरको 'बेरा' कहनेका रिवाज पड़ गया है।