पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४७
अध्याय २१ : बंबईमें स्थिर हुआ


प्लेग जोरों से फैल रहा था। जहांतक मुझे याद है, रोज पचास मृत्युएं होती थीं। वहां की वस्ती साढ़े पांच हजारके लगभग थी। करीब-करीब सारा गांव खाली हो गया था। मेरे ठहरनेका स्थान वहांकी निर्जन धर्मशालामें था। गांवसे वह धर्मशाला कुछ दूरी पर थी; पर मवक्किलोंका क्या हाल ? यदि वे गरीब हों तो उनका मालिक बस ईश्वर ही समझिए !

मुझे वकील मित्रोंने तार दिया कि मैं साहबसे प्रार्थना करू कि प्लेगके कारण अदालतका स्थान बदल दें। प्रार्थना करनेपर साहबने पूछा-- तुम्हें प्लेगसे डर लगता है ? '

मैंने कहा--"यह मेरे डरनंका प्रश्न नहीं है। मैं अपनी हिकाजत करना जानता हूं; पर मवविकलका क्या होगा ?

साहब बोले--"प्लेगने तो हिंदुस्तानमें घर कर लिया है, उससे क्या डरना! वेरावलकी हवा कितनी सुंदर है ! (साहब गांवसे दूर दरिया-किनारे महलके समान एक तंबूमें रहते थे ) लोगोंको इस प्रकार बाहर रहना सीखना चाहिए।

इस फिलासफीके सामने मेरी क्या चलने लगी? साहबने सरिश्ते- दारसे कहा--"मि० गांधीका कहना ध्यानमें रखना। यदि वकील-मवविकलोंको ज्यादा तकलीफ मालूम दे, तो मुझे बताना ।"

इसमें साबने तो सचाईसे अपनी मतिके माफिक उचित ही किया; पर उसे कंगाल हिंदुस्तानकी असुविधाओंका अंदाज कैसे हो ? वह बेचारा हिंदुस्तान की आवश्यकताओं, आदतों, कुटेवों और रिवाजोंको क्या समझे ? पंद्रह रुपयेको, मुहरकी गिनती करनेवाला पाईक्री गिनती कैसे झट लगा सकता है ? अच्छे- से-अच्छा हेतु होने पर भी जैसे हाथी चींटी के लिए विचार करने में असमर्थ होता है उसी प्रकार हाथी के समान जरूरतवाला अंग्रेज भी चींटियोंके समान जरूरतवाले हिंदुस्तानीके लिए विचार करने पीर नियम-निर्माण करने में असमर्थ ही होगा ।

अब खास विषयपर प्राता हूं। इस प्रकार सफलता मिलनेपर भी मैं थोड़े समय राजकोट में ही रहनेका विचार कर रहा था। इतने में एक दिन केवलराम मेरे पास आये और बोले---- “अब तुमको यहां न रहने देंगे। तुम्हें तो बंबईमें ही रहना पड़ेगा।"