चुकी थी। मंझले भाई मुझसे दो-तीन वर्ष बड़े थे। मेरे पिताजीने तीन विवाह एक साथ करनेका निश्चय किया-एक तो मंझले भाईका, दूसरे मेरे चचेरे भाई का, जिनकी उम्र मुझसे शायद एकाध साल ज्यादा होगी, और तीसरा मेरा। इसमें हमारे कल्याणका कोई विचार न था, हमारी इच्छाकी तो बात ही क्या? बस, केवल माता-पिताकी इच्छा और खर्च-वर्चकी सुविधा ही देखी गई थी।
हिंदू-संसारमें विवाह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं। वर-कन्याके मां-बाप विवाहके पीछे बरबाद हो जाते हैं। धन भी लुटाते हैं और समय भी बरबाद करते हैं। महीनों पहलेसे तैयारियां होने लगती हैं, तरह-तरहके कपड़े तैयार होते हैं, जेवर बनते हैं, जाति-भोजोंका तखमीना बनाया जाता है, खानेकी चीज़ोंकी होड़-सी लगती हैं। स्त्रियां, सुर हो या बे-सुर, गीत गा-गाकर अपना गला बैठा लेती हैं, बीमार भी पड़ जाती हैं, और पड़ोसियोंकी शांति भंग करती हैं सो अलग। पड़ोसी भी तो जब उनके यहां अवसर आता हैं तब ऐसा ही करते हैं, इसलिए इस सारे शोरगुलको तथा भोजोंकी जूठन व दूसरी गंदगीको चुपचाप सहन कर लेते हैं।
यह इतना झंझट तीन बार अलग-अलग करने के बजाय एक ही बार कर डालना क्या अच्छा नहीं? 'कम खर्च वाला नशीन।' क्योंकि तीन विवाह एक-साथ होनेसे खर्च भी खुले हाथ किया जा सकता था। पिताजी और चाचाजी वृद्ध थे। हम लोग थे उनके सबसे छोटे लड़के। इसलिए हमारे विवाह-संबंधी अपनी उमंगको पूरा करनेका भाव भी उनके मनमें था ही। इन कारणोंसे तीन विवाह एकसाथ करनेका निश्चय हुआ और उसके लिए, जैसा कि मै लिख चुका हूं, महीनों पहलेसे तैयारियां होती रहीं और सामग्रियां जुटती रहीं।
हम भाइयोंने तो सिर्फ उन तैयारियोंमें ही जाना कि हमारे विवाह होनेवाले हैं। मुझे तो इस समय इन मनसूबोंके अलावा कि अच्छे-अच्छे कपड़े पहनेंगे, बाजे बजते देखेंगे, तरह-तरहका भोजन, मिठाई मिलेगी, एक नई लड़कीके साथ हंसी-खेल करेंगे, और किसी विशेष भावका रहना याद नहीं आता। विषयभोग करनेका भाव तो पीछेसे उत्पन्न हुआ। यह किस प्रकार हुआ, सों मैं बता तो सकता हूं, परन्तु इसकी जिज्ञासा पाठक न रक्खें। अपनी इस शर्मपर मैं परदा डाले रखना चाहता हूं। किंतु जो बातें उनके जानने योग्य हैं, वे सब आगे